‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’’
‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’-इस पंक्ति का प्रयोग गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने कालजयी ग्रंथ ‘रामचरित मानस’ में उस समय किया है, जब मेघनाद वध के समय रावण उसे नीति के उपदेश दे रहा था। रावण ने सीता का हरण करके स्वयं नीति विरुद्ध कार्य किया था, भला ऐसे में उसके मुख से निकले नीति वचन कितने प्रभावी हो सकते थे, यह विचारणीय है।
इस पंक्ति का अर्थ है कि हमें अपने आस-पास ऐसे बहुत-से लोग मिल जाते हैं जो दूसरों को उपदेश देने में कुशल होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग दूसरों को तो बड़ी आसानी से उपदेश दे डालते हैं, पर उन बातों पर स्वयं अमल नहीं करते, क्योंकि-‘‘कथनी मीठी खांड सी, करनी विष की लोय।’’ हम भी ऐसे लोगों में से एक हो सकते हैं, या तो हम उपदेश देने वालों की श्रेणी में हो सकते हैं या उपदेश सुनने वालों की। अतः लगभग दोनों ही स्थितियों से हम अनभिज्ञ नहीं हैं। हमें सच्चाई पता है कि हमारे उपदेशों का दूसरों पर और किसी दूसरे के उपदेश का हम पर कितना प्रभाव पड़ता है। सच ही कहा गया है,
‘‘हम उपदेश सुनते हैं मन भर, देते हैं टन भर, ग्रहण करते हैं कण भर।’’
‘‘हम उपदेश सुनते हैं मन भर, देते हैं टन भर, ग्रहण करते हैं कण भर।’’
फिर क्या करें? क्या किसी को न तो उपदेश दें और न किसी का उपदेश सुनें? नहीं, उपदेश दें अवश्य, पर उसी को जो उपदेश के काबिल है, जिन पर आपको विश्वास हो कि आपके उपदेश उसे प्रभावित करेंगे। बिना माँगे सलाह देना, दूसरे के स्वभाव को जाने बिना उसे उपदेश देना अनेक बार खतरनाक रूप धारण कर सकता है, क्योंकि&
‘‘उपदेश से मूर्ख का क्रोध और भी भड़क उठता है, शांत नहीं होता है। जैसे साँप को दूध पिलाने से विष ही बढ़ता है।’’
हमें किसी को कोई बात समझाने के लिए हर बार और हर बात पर उपदेश देने की आवश्यकता नहीं होती। यदि हमारा स्वयं का आचरण श्रेष्ठ है तो हम मौन रहकर भी अपने आचरण एवं चरित्र से दूसरे को ठीक उसी प्रकार उपदेश दे सकते हैं, जैसे चींटी मौन रहकर भी कठिन एवं निरंतर श्रम करते रहने का उपदेश सहज ही दे देती है।
सबसे अच्छा है कि हम अपना उपदेश स्वयं को ही दें। स्वयं को उपदेश देने वाला ही वास्तव में अपनी आत्मा को ऊपर उठाने का काम करता है और जीवन में उन्नति करता है।
यदि हम दूसरों को उपदेश देना छोड़कर उन बातों को अपने व्यवहार में अपनाएँगे, तो उसका सामने वाले पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। वैसे भी बच्चा या घर का अन्य सदस्य घर में और लोगों को जिस तरह करते देखता है स्वयं भी वैसा ही आचरण करता है। यदि वह हमें उत्तम आचरण करते देखेगा तो फिर हमें उसे किसी प्रकार के उपदेश देने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी, क्योंकि वह हमारे श्रेष्ठ आचरण को बिना किसी प्रयास के, सहज रूप में अपने व्यवहार में आत्मसात करता चला जाएगा।
अंत में मेरा यही कहना है कि आपका आचरण ही आपका उपदेश है, जिसका असर गहन, व्यापक और प्रभावशाली हो सकता है।
Ramayana ki kis kand me hai
जवाब देंहटाएंरामचरितमानस में है। रामायण तो संस्कृत भाषा में लिखी गई है।
जवाब देंहटाएंVery nice article
जवाब देंहटाएंGood
जवाब देंहटाएंVery nice
जवाब देंहटाएंReally good and inspiring
जवाब देंहटाएंKnowledgeable article
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