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अगस्त, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ये कैसी आधुनिकता (हिंदी कहानी)

 ये कैसी  आधुनिकता ? लगभग छह-सात महीने पहले मोहल्ले में एक परिवार किराए पर रहने आया था। परिवार में पति, पत्नी तथा उनकी आठ वर्षीया पुत्री थी। बातचीत में मालूम हुआ कि पति का तबादला इस शहर में हो गया था और उनके इस शहर में रहने वाले एक रिश्तेदार ने ही इस मोहल्ले में उन्हें घर खोज कर दिलाया था। हालाँकि उनकी पत्नी को यह मोहल्ला शुरू से ही पसंद नहीं था। कारण यह था कि उसकी नज़र में मोहल्ले की सारी औरतें अनपढ़, गँवार और बेशऊर थीं। हाँ, परंतु मोहल्ले की औरतों सहित सबकी रुचि उनकी पत्नी में अवश्य थी। अपने आधुनिक रहन-सहन, वेशभूषा और अंग्रेजी भाषा की वजह से वो पूरे मोहल्ले के आकर्षण का केंद्र थी।  पंद्रह अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस के दिन वो प्रतिदिन की तरह अपनी बेटी को स्कूटी पर बिठाकर स्कूल से ला रही थीं। रास्ते में बेटी ने आइसक्रीम खाने की इच्छा जाहिर की। उस तथाकथित आधुनिक महिला ने स्कूटी रोककर आइसक्रीम खरीदी। माँ-बेटी दोनों ने बड़े चाव से आइसक्रीम खाई। आइसक्रीम बेटी के हाथ और होंठों के आस-पास लग गई थी। उस महिला ने दुकानदार से पेपर नैपकिन की माँग की। दुकानदार ने बेचारगी से ‘न’ में सिर हिला दिया। उसके

Hindi Kahani ओछी मानसिकता

 ओछी मानसिकता  ‘ ‘नहीं माँ, कह तो दिया कि अब मैं आज से भैया के साथ बिल्कुल नहीं जाऊंगी। मैं अब बच्ची नहीं रही, जो मुझे हर पल किसी सहारे की जरूरत पड़े।’’ रीना कुछ गुस्से भरे स्वर में बोली।  ‘‘अरे! तू भला क्यों नहीं जाएगी भैया के साथ?’’  ‘‘नहीं माँ, मैं नहीं जाऊँगी। मैं टेंपो करके चली जाऊँगी।’’  ‘‘ठीक है, जैसी तेरी मर्जी। वैसे भी तू किसी बात को सुनती तो है नहीं। देख रोहन! अपनी बहन को देख! अपनी बहन को समझा, कह रही है कि तेरे साथ नहीं जाएगी। अरे! भला टैंपू में जाने से पैसे और समय दोनों का ही नुकसान होगा। और फिर तेरा तो ऑफिस है ही उस तरफ़ ..........’’  रोहन सुनकर शांत रहा, कुछ नहीं बोला। रीना अपना बैग उठाकर बाहर जाने लगती है।  ‘‘अरे! कम-से-कम दूध तो पीती जा।’’ माँ ने मेज पर रखे हुए दूध को देखकर रीना को आवाज़ लगाई।  ‘‘नहीं माँ, देर हो रही है। मैं कैंटीन में ही कुछ खा-पी लूँगी’’, कहकर रीना तेज़ी से बाहर निकल जाती है।  ‘‘इस लड़की के दिमाग में भी पता नहीं क्या-क्या चलता रहता है।’’ अपने आप से ही बड़बड़ाती हुई माँ दूध वापस फ्रिज में रखने चली गईं।  रीना नज़रें दौड़ाकर टेंपो वाले को देख रही थी। मगर अभी कोई

Article परोपकार (परहित सरिस धर्म नहिं भाई)

परोपकार (परहित सरिस धर्म नहिं भाई)   'परोपकार' शब्द 'पर+उपकार' से बना है। 'पर' का अर्थ है 'दूसरा' और 'उपकार' का अर्थ है -भलाई। अर्थात 'दूसरों पर उपकार करना या दूसरों की भलाई करना ही परोपकार है।   अब प्रश्न होता है-दूसरे कौन? हम सभी अपने परिवार का ध्यान रखते हैं, उसके सुख-दुख में भागीदार होते हैं, तो कहीं-न-कहीं हम परिवार का भला ही तो कर रहे हैं। जी नहीं, परिवार का ध्यान रखना किसी भी तरह परोपकार में नहीं गिना जाएगा। यह तो बहुत संकीर्ण दायरा है। भारतीय संस्कृति या तुलसीदास द्वारा रचित पंक्तियों में परोपकार या परहित को बहुत व्यापक अर्थ में ग्रहण किया गया है। परोपकार का अर्थ है - प्राणी मात्र का भला करना। इसके अंतर्गत हर जीवित प्राणी, जैसे - मानव, पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, यहाँ तक कि पेड़-पौधे तक आ जाते हैं। भारतीय संस्कृति हमेशा क्षुद्रता या संकीर्णता को त्यागकर व्यापकता को अपनाने पर बल देती है। यही कारण है कि अपने परिवार के भरण-पोषण को परोपकार की श्रेणी में न रखकर कर्तव्य निर्वाह की श्रेणी में रखा जाता है। परोपकार के अंतर्गत तो मनुष्य अपन

Hindi Story हर घर तिरंगा

 हर घर तिरंगा  रीता ने तेजी से रिक्शे की ओर कदम बढ़ाए। उसे अपना एक परिचित रिक्शे वाला दिखाई दिया। रिक्शे वाला भी उसे देखकर रिक्शे से उतर गया। वह बिना मोल-भाव किए रिक्शे में बैठ गई। उसे स्कूल में नौकरी करते हुए लगभग छह साल हो गए थे। वह प्रतिदिन रिक्शे से ही आती-जाती थी। अतः अपने घर के पास वाले चौराहे पर खड़े कुछ रिक्शे वालों को वह पहचानने लगी थी। उनसे उसे भाड़ा तय नहीं करना पड़ता था। प्रतिदिन 20 रुपए एक तरफ का किराया लगता था। छह साल पहले दस रुपए से शुरुआत हुई थी, फिर पंद्रह रुपए हुए और अब लगभग एक साल से बीस रुपए भाड़ा हो गया था। कभी-कभी वह सोचती भी थी कि सब ओर इतनी तेजी से महँगाई बढ़ी है, पर रिक्शों पर इसका उतना असर नहीं आया। बल्कि इन टिर्रियों ने तो इन रिक्शे वालों की कीमत घटा और दी है।  आज पंद्रह अगस्त है। उसे इस अवसर पर एक भाषण भी देना था। वह मन-ही-मन अपने भाषण को दोहराने लगी। तभी रास्ते में उसकी नजर झंडे की दुकान पर पड़ी। उसने सोचा यदि एक हाथ में तिरंगा झंडा पकड़कर भाषण बोलूँगी, तो दिखने में और ज्यादा अच्छा लगेगा। उसने रिक्शावाले से कहा, ‘भैया, दो मिनट रुको, मुझे झंडे खरीदने हैं।”   रीता रि

प्रकृति प्रेमी: भगवान श्रीकृष्ण

प्रकृति प्रेमी: भगवान श्रीकृष्ण यूँ तो हम भगवान श्री कृष्ण के अनेक रूपों एवं नामों से परिचित हैं, लेकिन उनका एक अन्य रूप भी है, जो है- प्रकृति प्रेमी का। जी हाँ, चाहे कालिया नाग मर्दन हो चाहे गोवर्धन पर्वत उठाना हो, चाहे गायों को चराना हो चाहे कदंब के पेड़ के नीचे खड़े होकर वंशी बजाना हो-ये सारे कार्य भी प्रकृति से जुड़े हुए हैं। मेरा तो अपना मत यही है कि इस धरती पर जितने भी अवतार या सिद्ध पुरुष हुए हैं, उनमें से सर्वाधिक प्रकृति प्रेमी, प्रकृति हितैषी, प्रकृति संरक्षक यदि कोई हुआ है तो वह हैं कर्म योग का पाठ पढ़ाने वाले नटखट, माखनचोर, नटवरलाल, कृष्ण-कन्हैया। आप कहेंगे कि सर्वाधिक प्रकृति प्रेमी भगवान श्री कृष्ण ही क्यों हैं? तो इसका उत्तर है-इसलिए, क्योंकि यदि हम संपूर्णता से अध्ययन करें तो पाएँगे कि भगवान श्री कृष्ण का अधिकांश जीवन प्रकृति के सामीप्य में ही व्यतीत हुआ है। जैसे कि जन्म लेते ही उन्होंने कालिंदी यानी यमुना के उफनते जल को अपने नन्हे पैरों के स्पर्श मात्र से शांत कर दिया था। भगवान श्रीकृष्ण यमुना में नहाया करते थे और वृंदावन की कुंज गलियों में विहार किया करते थे। वृंदावन के ब