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टाइम पास
पोपटलाल जी-उम्र (लगभग पैंतालीस साल), रंग साफ़, हल्की मूँछें।
सुमित्रा-पोपटलाल जी की पत्नी (उम्र लगभग चालीस साल)
रामप्रसाद जी (पोपटलाल जी के मित्र) रंग साँवला, पैंट-शर्ट पहने हुए हैं।
(कुर्ता पायज़ामा पहने तथा आँखों पर चश्मा चढ़ाए पोपटलाल जी, कमरे में एक कुर्सी पर बैठे अखबार के पन्ने पलट रहे हैं।)
पोपटलाल जी (ऊँचे स्वर में पढ़ते हुए )-महँगाई के कारण एक परिवार ने की सामूहिक आत्महत्या, कर्ज़ में डूबे किसान फसल चैपट होने से भुखमरी के कगार पर, प्याज और आलू की कीमतों में उछाल। (अखबार को मेज़ पर लगभग फेंककर, झुँझलाते हुए)-समझ में नहीं आता, आखिर आम आदमी इस महँगाई में करे तो क्या करे?
रामप्रसाद जी (कमरे में प्रवेश करते हुए, हँसकर)-पोपटलाल जी, लगता है भाभीजी बोलने का वक्त नहीं देतीं, इसलिए अकेले-अकेले ही बड़बड़ाए जा रहे हो।
पोपटलाल जी (सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हैं, उनके स्वर में अभी भी झुँझलाहट है)-आइए!आइए! बैठिए रामप्रसाद जी! क्या बताऊँ, इस महँगाई ने तो नाक में दम कर रखा है।
रामप्रसाद जी-तो, ये बात है। (चुटकी लेते हुए) लगता है, आज़ इतवार होने के कारण भाभीजी ने बाज़ार ले जाने को कह दिया होगा और ज़नाब जेब ढीली होने के डर से बौखला रहे हैं।
पोपटलाल जी-नहीं यार! ऐसी बात नहीं है। सुमित्रा जानती है कि ऐसी फरमाइश करने का कोई लाभ नहीं है, सो अब तो उसने कहना ही छोड़ दिया है।
रामप्रसाद जी-तुम भाग्यशाली हो मित्र! मुझे तो छुट्टी वाले दिन सुबह से ही घर से गायब होना पड़ता है, वर्ना एक बार मेरी पत्नी ने ज़िद पकड़ ली तो फिर भैया नोट भी जेब से बाहर निकलने के लिए फड़फड़ाने लगते हैं।
(इतना कहकर ठहाका मारते हुए पोपटलाल जी की तरफ़ हाथ बढ़ाते हंै, पोपटलाल जी अपनी हथेली आगे बढ़ा देते हैं, जिस पर वो अपनी हथेली मारते हैं। पर पोपटलाल जी ठहाके में साथ नहीं दे पाते।)
पोपटलाल जी (उदास स्वर में)-लेकिन इस समस्या से निपटने का यह तो कोई उपाय नहीं।
(रामप्रसाद जी की आवाज़ की शोखी पल-भर में ही पोपटलाल जी के उदास स्वर में लुप्त हो जाती है।)
रामप्रसाद जी (गंभीर होकर )-तुम्हारी बात सच है। डरता हूँ, जिस दिन ऊँट पहाड़ के नीचे आएगा, उस दिन मेरी जेब का क्या हाल होगा? (गहरी साँस लेकर)-इस समस्या का कुछ तो हल निकालना ही होगा।
पोपटलाल जी-तुम सच कह रहे हो। महँगाई तो सुरसा के मुख की तरह बढ़ रही है, पर उस हिसाब से वेतन में बढ़ोत्तरी नाममात्र की ही हो रही है।
रामप्रसाद जी-लेकिन हम सरकारी नौकरी वाले कर ही क्या सकते हैं? सरकार से लड़ने की हिम्मत तो है नहीं हमारी।
(इतने में सुमित्रा ट्रे में तीन चाय के प्याले तथा एक प्लेट में समौसे लेकर दाखिल होती है।)
सुमित्रा (मेज पर ट्रे रखकर कुर्सी पर बैठते हुए)-भाईसाहब, आखिर सरकार से लड़ने की क्या नौबत आ गई?
रामप्रसाद जी-कुछ नहीं भाभीजी, बस, यह मुई महँगाई!
सुमित्रा-आप सच कह रहे हैं भाईसाहब, अब देखिए बड़े बेटे का एम0 बी0 ए0 में दाखिला करवाना है, पर समझ नहीं आ रहा कि इस मोटी फ़ीस का इंतज़ाम कैसे करें?
पोपटलाल जी-अच्छा होता कि सरकारी नौकरी छोड़-छाड़कर नेता बन जाता, कम-से-कम कोई घोटाला करके मौज़ तो उड़ा रहा होता।
सुमित्रा (थोड़ा बिगड़ते हुए)-अरे! लगता है महँगाई ने तुम्हारा दिमाग फिरा दिया है, तभी अनाप-शनाप बके जा रहे हो।
रामप्रसाद जी-हाँ यार! भाभीजी ठीक कहती हैं, ये सोच तो कदापि ठीक नहीं।
पोपटलाल जी (निराशा भरे स्वर में)-तो तुम ही बताओ, इस महँगाई के दानव से कैसे निपटा जाए?
रामप्रसाद जी (कुछ ज़वाब देने की बज़ाए समौसा उठाकर खाने लगते हैं)-समौसे तो बहुत स्वादिष्ट हैं। कहाँ से मँगाए हैं?
सुमित्रा-समीप ही एक हलवाई है, उससे। सुना है शाम भर में हजा़रों समौसे बेच लेता है।
पोपटलाल जी-हमसे अच्छा तो वो हलवाई ही ठहरा।
रामप्रसाद जी (कुछ सोचते हैं, फिर उनकी आँखों में चमक और आवाज़ में खनक बढ़ जाती है)-क्यों न हम भी एक समौसे की दुकान खोल लें। शाम को तो वैसे भी हम खाली ही होते हैं।
पोपटलाल जी (चहकते हुए)-हाँ यार! बात तो तुम्हारी ठीक है, इससे कुछ आमदनी भी हो जाएगी।
सुमित्रा-लेकिन भाईसाहब, समौसे बनाएगा कौन?
रामप्रसाद जी-हलवाई, और कौन?
सुमित्रा-(हाथ नचाते हुए)-फिर तो सारे पैसे वो अपनी मज़दूरी के ही ले ले जाएगा। हाथ क्या आएगा? ठन-ठन गोपाल! और फिर यदि कभी हलवाई नहीं आया, तो उस दिन तो दुकान बंद ही समझो।
पोपटलाल जी-हाँ, यह तो हमने सोचा ही नहीं। न, न, ऐसा कोई काम नहीं करना, जिसमें दूसरे पर निर्भर रहना पड़े।
रामप्रसाद जी (हँसते हुए)-लो भाई, समौसे की दुकान तो खुलने से पहले ही बंद हो गई। अब कुछ और सोचते हैं। आखिर कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा। बच्चे बड़ी कक्षाओं में आ रहे हैं, अब तो स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ ट्यूशन का खर्चा भी बढ़ रहा है।
पोपटलाल जी (सिर खुजलाते हुए)-क्यों न ऐसा करते हैं, खाली समय में आस-पास के बच्चों को ट्यूशन देने का ही काम शुरू कर लेते हैं। इससे आमदनी भी बढ़ेगी और ज्ञान भी।
सुमित्रा (मुँह बिगाड़कर)-ऊँह! आप तो रहने ही दीजिए। अपने बच्चों को तो आज तक पढ़ाया नहीं गया, चले हैं ट्यूशन पढ़ाने।
रामप्रसाद जी (हँसते हुए)-लो भाई, तुम्हारा आइडिया भी फेल हो गया। अब तुम कोई ऐसा आइडिया सोचो, जो भाभीजी को तुरंत पसंद आ जाए।
सुमित्रा-भाईसाहब, इन्हें तो बस ऐसे फालतू के आइडिया ही सूझते हैं। (लगभग उठते हुए) मैं तो अब चली खाना बनाने। मेरी सलाह की ज़रूरत पड़े, तो आवाज़ लगा देना।
रामप्रसाद जी-(हाथ से बैठने का इशारा करते हुए)-अरे चली कहाँ भाभीजी? आपने कहा और आपकी ज़रूरत पड़ गई।
सुमित्रा (पुनः बैठते हुए)-क्या मतलब भाईसाहब!
रामप्रसाद जी-(चहकते स्वर में)- भाभीजी, इस बार काम का आइडिया मिल गया। (पोपटलाल जी और सुमित्रा को दुविधा में देखकर)-अरे आप अभी तक नहीं समझे?
(दोनों ‘नहीं’ में सिर हिलाते हैं।)
रामप्रसाद जी-अरे भाभीजी, अभी तो आप ने कहा कि आप खाना बनाने जा रही हैं।
सुमित्रा (खीझ भरे स्वर में)-हाँ..........पर उससे आपके आइडिए का क्या संबंध?
रामप्रसाद जी-संबंध है भाभीजी। (पोपटलाल जी की ओर रुख करके) क्यों न भाभीजी और मेरी पत्नी मिलकर खाना बनाएँ, और उस खाने को डिब्बों में बंद करके कामकाजी महिलाओं और घर से दूर अकेले रहकर पढ़ाई करने वाले बच्चों को सप्लाई किया जाए।
सुमित्रा (कुछ रोष प्रकट करते हुए)-वाह भाईसाहब! आप मर्द लोग भी खूब चालाक हैं। अपने व्यापार की बात कहकर हम महिलाओं को फँसाना चाह रहे हैं। अरे! हमारे पास पहले ही गृहस्थी के काम क्या कम हैं, जो इस काम को और अपने ऊपर ले लें।
रामप्रसाद जी (समझाने का प्रयास करते हुए)-भाभीजी, मेरा मतलब ये नहीं था, मैं तो बस.......................
सुमित्रा (बात काटते हुए)-भाईसाहब, हम औरतें आप लोगों के मतलब को खूब पहचानती हैं। आप मर्द लोग तो चाहते ही यही हैं कि हम औरतें सुबह से शाम तक बस रसोई में ही जुती रहें।
रामप्रसाद जी- भाभीजी, दरअसल.....(कुछ कहना चाहते हैं, पर तभी उनके फोन की घंटी बजती है। मोबाइल जेब से निकालकर बातें करने लगते हैं।)
रामप्रसाद जी (फोन पर ही)-हाँ! हाँ! बाबा! ठीक है! अभी आता हूँ, तुम तैयार रहो।
रामप्रसाद जी (मोबाइल जेब में रखकर, दोनों की तरफ़ मुखातिब होते हुए)-लो, जिसका डर था, वही हुआ। पत्नी बाज़ार जाने के लिए तैयार होकर बैठी हुई है। मुझे शीघ्र घर बुलाया है। लगता है, आज़ मेरी हज़ामत होकर रहेगी। अब तो सिरदर्द का बहाना ही बचा सकता है।
(तीनों मिलकर हँसते हैं)
रामप्रसाद जी (खड़े होकर)-अच्छा, अब मैं चलता हूँ। अगले इतवार को संग बैठकर फिर कोई काम-धंधा ढूँढ़ते हैं। आखिर काम की कोई कमी थोड़े ही है। बोरी भर के आइडिया हैं दिमाग में।
सुमित्रा (मन ही मन बड़बड़ाते हुए)- हूँऊँ! आइडिया तो बोरी भर के हैं, पर एक भी अच्छा नहीं, सऽऽऽब टाइम-पास।
रामप्रसाद जी-भाभीजी आपने मुझसे कुछ कहा?
सुमित्रा (बात बदलते हुए)-कुछ नहीं भाईसाहब, बस मैं तो ये कह रही थी कि अब मुझे भी खाना बनाने चलना चाहिए। बच्चे आते ही होंगे।
(रामप्रसाद जी और सुमित्रा दोनों निकल जाते हैं। पोपटलाल जी फिर से अखबार उठाकर समाचार बाँचने लगते हैं।)-दहेज के कारण विवाह न हो पाने के कारण तीन सगी बहनों ने की आत्महत्या, अनेक नेताओं का करोड़ों रुपया स्विस बैंकों में, मंदिर से निकला अरबों का खज़ाना, एक सर्वे की रिपोर्ट है कि इस देश में सबसे अधिक फल-फूल रहे हैं नेता और बाबा..........।
पोपटलाल जी (खुश होकर, अपने आप से ही)-वाह! मिल गया लाज़वाब आइडिया। अब पार्ट टाइम साधु-संन्यासी वाला धंधा शुरूऊऊऊऊ......................।
(धीरे-धीरे पर्दा गिरता है।)
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