एकांकी
बिखरता सपना
पात्र-
धीरजकुमार जी-उम्र-लगभग पैंतालीस साल
रामलाल जी-इनकी उम्र भी लगभग पैंतालीस साल
चित्रा-धीरजकुमार जी की बेटी-उम्र चैबीस साल
दृश्य- धीरजकुमार जी एक कुर्सी पर बैठे समाचारपत्र पढ़ रहे हैं। थोड़ी दूर पर मेज़ कुर्सी रखी हुई है,जहाँ बैठी उनकी बेटी अपनी पढ़ाई में व्यस्त है।
(बाहर से रामलाल जी का प्रवेश)
रामलाल जी-क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?
धीरजकुमार जी (बाहर की ओर झाँकते हुए)-कौन! रामलाल जी आप! आइए!आइए!
(रामलाल जी को देखकर धीरजकुमार जी और उनकी बेटी चित्रा दोनों ही उठ खड़े होते हैं।)
धीरजकुमार जी-बैठिए, बैठिए रामलाल जी।( बेटी की ओर मुखातिब होकर) बेटी, इन्हें प्रणाम करो।
चित्रा-नमस्ते चाचाजी!
रामलाल जी-खुश रहो बेटी!
धीरजकुमार जी-चित्रा, तुमने तो इन्हें पहचाना नहीं होगा?
(चित्रा ‘नहीं’ में सिर हिलाती है।)
धीरजकुमार जी-अभी पिछले वर्ष जब मैं एक महीने के लिए दफ़्तर की तरफ़ से ट्रेनिंग पर गया था, तभी आपसे मेरी मुलाकात हुई थी, उस समय रामलाल जी भी अपने दफ़्तर की ओर से ट्रेनिंग पर आए हुए थे।
चित्रा (याद करती हुई सी)-हाँ, हाँ, ध्यान आया। आप उस समय फोन पर अपने सभी मित्रों का ज़िक्र किया करते थे। (कहकर चित्रा अपनी मेज़ की ओर बढ़ जाती है।)
धीरजकुमार जी (रामलाल जी से)-लेकिन आप अचानक इस शहर में।
रामलाल जी (चहकते हुए स्वर में)-तुम्हें शायद याद होगा, मैंने यह बताया था कि मेरा बेटा इस शहर के कस्तूरबा इंजीनियरिंग काॅलेज़ से कंप्यूटर में इंजीनियरिंग कर रहा है। बस, उसी से मिलने चला आया।
धीरजकुमार जी-हाँ याद आया। तब मैंने भी तुम्हें बताया था कि मेरी बेटी भी उसी काॅलेज़ से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही है।
रामलाल जी (मुंह बनाते हुए)-हाँ बताया तो था। पर मुझे यह समझ नहीं आया कि तुम्हें भला बेटी को इंजीनियरिंग कराने की क्या सूझी?
धीरजकुमार जी (हँसते हुए)-जैसे तुम्हें अपने बेटे को इंजीनियरिंग कराने की सूझी।
रामलाल जी-भला बेटे और बेटी की आपस में क्या तुलना? मैं जानता हूँ, मुझे अपने बेटे की फ़ीस के लिए कितनी मोटी रकम का इंतज़ाम करना पड़ता है। तुम्हारी ज़गह मैं होता तो हर्गिज़ अपनी बेटी के ऊपर इतना खर्चा नहीं करता।
धीरजकुमार जी (अभी भी उनके चेहरे पर मुसकराहट बनी हुई है।) क्या आपको नहीं लगता कि आपकी यह सोच लड़कियों के प्रति अन्याय है? जब आप लड़के की पढ़ाई पर खर्च कर सकते हैं, तो भला लड़की की पढ़ाई पर क्यों नहीं?
रामलाल जी-धीरजकुमार जी! लगता है आप मेरी बात का आशय समझे नहीं हैं। देखिए, बेटे को पढ़ाने का तो मेरे पास स्पष्ट कारण है। बेटा इंजीनियर बन जाएगा, तो दहेज़ में मोटी रकम आएगी। उसकी पढ़ाई पर किया गया खर्च एक झटके में वसूल हो जाएगा।
धीरजकुमार जी (कुछ व्यंग्यात्मक स्वर में)-लगता है रामलाल जी, आपने अपने बेटे को बड़ी योजना के साथ पढ़ाया है। पर मैंने अपनी बेटी को शिक्षा इसलिए दी है, ताकि वो अपने पैरों पर खड़ी हो सके।
रामलाल जी-बहुत खूब! तुम क्या समझ रहे हो? जब ये अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी, तो क्या कमा कर तुम्हें दे जाएगी।
धीरजकुमार जी-मैंने तो कभी ऐसा चाहा ही नहीं। मैं तो बस ये चाहता हूँ कि ये पढ़-लिखकर शादी के बाद अपनी गृहस्थी को ढंग से चलाए।
रामलाल जी-(कुछ झुँझलाहट भरे स्वर में)- मेरे लिए तो तुम्हारी बातें पहेली ही बनी हुई हैं। तुम इतना नहीं समझ पा रहे हो कि अभी तुम इसकी पढ़ाई में इतना खर्च कर रहे हो, फिर इसकी शादी में भी मोटी रकम खर्च करनी पड़ेगी। भला दो-दो बार खर्चा करने में तुम्हें क्या मज़ा आ रहा है?
(चित्रा जो अब तक सब सुन रही थी, अब सहन नहीं कर सकी। वह अपने स्थान पर से उठकर आती है और रामलाल जी से कहती है।)
चित्रा-माफ़ करना चाचाजी, समझ नहीं आता, आप स्त्री शिक्षा के इतने विरोधी क्यों हैं? और फिर आपने यह कैसे सोच लिया कि किसी लड़की का विवाह बिना दहेज दिए हो ही नहीं सकता।
रामलाल जी (अचानक हुए इस हमले से सँभलते हुए)-बेटी, तुमसे ज़्यादा दुनिया मैंने देखी है। अभी मेरे बड़े भाई ने अपनी लड़की का विवाह किया है। लड़की को अच्छा-खासा पढ़ाने के बाद भी उन्हें दहेज में लाखों रुपया खर्च करना पड़ा है। और-तो-और हमारे पड़ोसी को भी अपनी बेटी की शादी में कर्ज़ लेकर लाखों का दहेज चुकाना पड़ा है।
चित्रा-इन कुछेक उदाहरणों से यह तो नहीं माना जा सकता कि आज बिना दहेज शादी करने वाले लड़कों का अकाल पड़ गया है।
रामलाल जी-मैंने ऐसा कब कहा बेटी? ऐसे लड़के भी हैं, जो बिना दहेज के विवाह करते हैं। पर, वे या तो कम पढ़े-लिखे होते हैं या बेरोज़गार। भला पढ़ा-लिखा, कमाऊ लड़का बिना दहेज विवाह क्यों करने लगा। (सगर्व) अब मेरे बेटे को ही देखो, अभी तो उसकी पढ़ाई पूरी भी नहीं हुई है और एक-से-एक करोड़पति घरों से रिश्ते आ रहे हैं, क्योंकि सबको पता है कि पढ़ाई पूरी होते ही उसकी कम-से-कम चालीस-पचास हज़ार रुपए की नौकरी लगेगी।
चित्रा-ये कहिए चाचाजी कि आप अपने बेटे का विवाह नहीं करना चाहते, बल्कि उसे बेचना चाहते हैं।
रामलाल जी-ये तो अपनी-अपनी सोच का फ़र्क है। तुम्हारी नज़र में ये बेचना है, पर मैं ऐसा हर्गिज़ नहीं मानता। अरे! जब मैंने उसकी पढ़ाई में अपने खू़न-पसीने की कमाई लगाई है, तो उसे वसूलने का मुझे पूरा हक भला क्यों न हो।
चित्रा (क्रोध में भरकर)-आप जैसे लोगों के कारण ही समाज से दहेज जैसी कुप्रथा का अंत नहीं हो पा रहा है। लड़कियाँ पढ़-लिख जाने पर भी आग के हवाले की जा रही हैं। आज पैदा होने से पहले ही लड़कियों को मौत की नींद सुला दिया जाता है, इसके पीछे दहेज जैसी कुप्रथा भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार है।
धीरजकुमार जी (कुछ ऊँची आवाज़ में)-अब बस भी करो बेटी! घर आए मेहमान से भला ऐसा सलूक किया जाता है। और फिर रामलालजी हमारे घर पहली बार आए हैं, भला ये हमारे बारे में क्या सोचेंगे।
रामलाल जी (मुसकराते हुए, जैसे चित्रा की बात का उन पर कोई असर ही नहीं हुआ हो)-जाने भी दीजिए, अभी बच्ची है। मुझे इसकी नादानी भरी बातों का तनिक भी बुरा नहीं लगा। इसे इन बातों का अहसास तब होगा, जब आप इसके लिए लड़का देखने जाएँगे और वहाँ बिना दहेज के कोई शादी की बात करना तो दूर आपसे बैठने के लिए भी नहीं कहेगा।
चित्रा-ऐसी नौबत ही नहीं आएगी चाचाजी! (थोड़ा सकुचाते हुए)-मुझे ऐसा लड़का मिल गया है, जो मेरे गुणों से प्यार करता है। जिसे दहेज नहीं, बस पढ़ी-लिखी समझदार लड़की चाहिए।
धीरजकुमार जी (आश्चर्य से बेटी के मुँह की ओर देखते हुए)-ये क्या कह रही हो बेटी!
चित्रा (कुछ धीमे स्वर में)-माफ़ करना पिताजी! मैंने सोचा था कि उचित समय आने पर मैं आपको सब कुछ बता दूँगी।
धीरजकुमार जी-पर वो लड़का है कौन? कुछ नाम-पता तो बतलाओ।
चित्रा (नज़रें झुकाकर)-पिताजी वो मेरे साथ ही इंजीनियरिंग कर रहा है। उसका नाम रोहन है, वो आगरा का रहने वाला है।
रामलाल जी (घबराकर)-क्या कहा? रोहन? कहीं तुम उस रोहन की बात तो नहीं कर रहीं, जो कस्तूरबा काॅलेज से कंप्यूटर में इंजीनियरिंग कर रहा है। जो.......जो......गीतांजलि अपार्टमेंट में किराए पर रह रहा है।
चित्रा-हाँ! हाँ! वही! पर आप उसे कैसे जानते हैं?
रामलाल जी (निढाल स्वर में )-दरअसल वो मेरा ही बेटा है, जिससे मैं यहाँ मिलने आया था।
धीरजकुमार जी एवं चित्रा (आश्चर्य से एक साथ)-क्या !
रामलाल जी गहरी साँस छोड़ते हुए ‘हाँ’ कहते हैं और कुर्सी के सिरहाने पर अपना सिर टिका देते हैं। धीरजकुमार जी एवं चित्रा अभी भी मुँह खोले उनकी ओर देख रहे हैं।
(धीरे-धीरे पर्दा गिरता है।)
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