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HINDI SANSMARAN बदलता बचपन (BADALTA BACHPAN)

संस्मरण

बदलता बचपन

एक बार कृष्णा सोबती जी की रचना पढ़ी-‘मेरा बचपन’। पढ़कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि लेखिका के बचपन में हर चीज़ कितनी सस्ती मिलती थी, सच, कितना अच्छा होगा उनका बचपन। पर आज़ जब मैं अपने अतीत की ओर झाँकती हूँ, तो देखती हूँ कि मेरा बचपन भी तो आज के बच्चों के बचपन से कितना अलग, कितना अच्छा था। भले ही मेरे बचपन में चीजें उतनी सस्ती तो न थीं, जितनी कृष्णा सोबती जी के बचपन में थीं, पर ऐसा बहुत कुछ था, जिसे याद करके खुश...... नहीं, बल्कि बहुत खुश हुआ जा सकता है। तब भी चीज़ें आज के जितनी महँगी तो न थीं। मुझे आज भी याद है, तब मात्र चालीस-पचास हज़ार में नया बना-बनाया घर मिल जाया करता था। यह बात अलग थी कि तब उसे भी महँगा ही समझा जाता था। पर आज फ्लैट कहे जाने वाले ये दड़बेनुमा घर (जो उस समय कम-से-कम छोटे शहरों में तो बिल्कुल न थे) बीस-पच्चीस लाख में मिलते हैं।


तब हम बच्चों के खेल भी बिल्कुल अलग हुआ करते थे। बादलों को देखकर उनमें दादी माँ, ऐरावत हाथी या फूल-पक्षी की कल्पना करने के अलावा गिट्टी फोड़, ऊँच-माँगी नीच, किल-किल काँटे, पोसमपा, विष-अमृत, लुका-छिपी, लँगड़ी टाँग.............और भी न जाने कितने ऐसे खेल, जिन्हें आज के बच्चों ने खेला तो दूर, शायद सुना भी नहीं होगा। सुनेंगे किससे? न आज माता-पिता को इतनी फुर्सत है कि बच्चों को ये सब सुनाएँ और न बच्चों को इन बातों को सुनने में कोई रुचि ही रह गई है। तब तो शाम होते ही हर गली में बच्चों का रेला खेलने के लिए निकल पड़ता था और जब तक घरों से बुलाने की आवाज़ें नहीं आती थीं या पेट में चूहे नहीं दौड़ते थे, किसी का जाने का मन ही नहीं करता था। पर आज का बच्चा टी0वी0, कंप्यूटर, मोबाइल में इतना उलझा हुआ है कि ये सब खेल तो उसे बचकाने लगेंगे। और फिर आज इन नाज़ुक कंधों पर पढ़ाई का इतना बोझ भी तो आ चुका है कि मानसिक कार्यों के सामने शारीरिक कार्य बहुत पीछे छूट चुके हैं। तब स्कूल का वातावरण भी बहुत कुछ अलग हुआ करता था। लगभग हर स्कूल की लड़कियाँ दो चोटी बनाए, रिबन बाँधे, मलमल की तह की हुई चुन्नी पहने नज़र आती थीं। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर तो चोटी और कलाइयों में सब तिरंगे रिबन बाँधा करते थे। इन अवसरों पर जो कार्यक्रम होते थे, उनमें भी तिरंगी झालरों वाली फ्राॅक पहनकर हाथ उठा-उठा कर जब हम देशभक्ति के गीत गाते थे, तो अपने को किसी क्रांतिकारी से कम नहीं समझते थे। कार्यक्रम की समाप्ति पर जब स्टील की चमचमाती कटोरी, पैन या प्लास्टिक का पैंसिल बाॅक्स मिलता, तो उसे घर-भर में ऐसे दिखाते-फिरते, मानो कोई बहुत बड़ा मेडल जीता हो। मजाल कि उस प्लेट में हमारे अलावा कोई कुछ खा तो जाए या किसी चीज़ को हाथ तो लगा दे। इनाम में मिली हर चीज़ को इस्तेमाल करने का हक सिर्फ़ हमारे पास होता।


खेल के साथ-साथ हमारी खाने की चीज़ें भी कितनी अलग हुआ करती थीं। स्कूल के सामने वाली दुकान से इमली, चूरन खरीद कर खाए बिना जी नहीं भरता था। गुड़िया के मीठे बाल, रंग-बिरंगी जमी हुई चाशनी से सींक पर अपनी फरमाइश से बनवाए गए फूल-फल आदि की आकृतियों को खाने में अपनी (आज के हिसाब से बहुत मामूली) जेबखर्ची को व्यय किया करते थे। तब बाज़ार के खाने का इतना प्रचलन नहीं था। ढोकला, कुल्चा, डोसा, इडली, साँभर,बड़ा-अन्य प्रदेशों के ये व्यंजन तो उत्तर भारत में कुछ ही घरों में बनाए-खाए जाते होंगे। शाम को खाने में ज़्यादा परांठे बनाकर रख दिए जाते थे, अकसर सुबह का नाश्ता उन्हीं परांठों का हुआ करता था। परिवर्तन का मन हुआ तो उन पर देशी घी-नमक चुपड़ लिया। तब दूध-घी इतना महँगा और मिलावटी भी तो नहीं हुआ करता था। मिलावट की बात चली है, तो बता दूँ कि उस समय हमें ठेले पर से या सीधे डलिया में से सब्जी या फल खाने में कीटाणुओं के पेट में पहुँचने का कोई अनजाना भय भी नहीं रहता था। पर आज सब्जी-फल धोकर, छीलकर खाने में भी डर लगता है कि कीटाणु नहीं, बल्कि कहीं कोई कैमिकल उदरस्थ न हो जाए।
            आज की फ्लैट संस्कृति में यह भी नहीं पता होता कि पड़ोस में कौन रह रहा है? यदि कोई किसी से संबंध बनाने की कोशिश करता है, तो उसे फूहड़ और दूसरे की प्राइवेसी सें दखल डालने वाला कहकर तिरस्कृत किया जाता है। हं यही वज़ह है कि आज बुज़ुर्ग इतने अकेले पड़ गए हैं। हमारे जमाने में तो जिसका मन आया, वही एक-दूसरे के घर में पूरा-पूरा दिन निकाल दिया करता था। आज के लोगों की यही शिकायत रहती है कि किसी के घर जाने के लिए हमारे पास समय ही नहीं है। जबकि देखा जाए तो आज हर घर में घरेलू कामों के लिए नौकरानियाँ लगी हुई हैं, फिर आज बिजली, पानी की सहूलियत के साथ-साथ वाशिंग मशीन, मिक्सी, माइक्रोवेव आदि अनेक ऐसे उपकरण आ गए हैं, जिनकी मदद से पहले की अपेक्षा काम में बहुत सहूलियत और समय की बचत हुई है। फिर भी यदि आज की गृहिणियों को रिश्तेदारी निभाने का समय नहीं मिलता, तो दोष काम की व्यस्तता का नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों के बिखराव का है। यदि दोष समय की कमी का होता, तो उन्हें सास-बहुओं के सभी सीरियल्स की कहानियाँ भी पता न होतीं।


सोचती हूँ, कृष्णा सोबतीजी के बचपन से मेरे बचपन का अलग होना, कोई परमाश्चर्य की चीज़ नहीं है। जब मेरे बच्चे मेरी उम्र पर आकर अपने बचपन में झाँकेंगे, तो यकीनन उन्हें उनका वर्तमान उनके बचपन से बहुत भिन्न नज़र आएगा। शायद यही सत्य है। कहते हैं, निरंतर परिवर्तन ही जीवन है, इसी में मानव-जीवन का विकास छिपा है। भला, विकास किसे नहीं अच्छा लगता। पर, बस मेरा एकमात्र डर इस बात को लेकर है कि कहीं इस विकास और परिवर्तन की आड़ में, मनुष्य अपने स्वाभाविक गुणों और शाश्वत मूल्यों को भेंट न चढ़ा दे।


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