मृत्यु का सच
रोहन और अनिल दोनों एक ही मुहल्ले में रहते थे और बचपन से ही साथ-साथ एक ही स्कूल में पढ़े थे। दोनों का जन्म भी लगभग साथ ही हुआ था और मृत्यु भी.................पर दोनों की मृत्यु में कितना अंतर था। ‘अनिल की इस तरह की मृत्यु का मैं ही ज़िम्मेदार हूँ। वर्ना आज मेरा बेटा भी शहीद कहलाने का हकदार होता।’ सोचते हुए शर्माजी ने आँसू छलक पड़े।‘‘शर्माजी रोओ नहीं, रोहन जैसी मौत खुशकिस्मतों को ही नसीब होती है। मेरा बेटा मरा नहीं है, बल्कि देश के लिए शहीद हुआ है। उसकी शहादत पर तो हमें गर्व होना चाहिए।’’रोहन के पिता ने शर्माजी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।’’
‘‘हाँ, आप ठीक कह रहे हैं।’’ कहते हुए उन्होंने अपने बहते आँसुओं को रोकने की कोशिश की। पर उन आँसुओं का रहस्य वे ही जानते थे । ये देखने वालों के लिए सिर्फ़ आँसू थे, पर सच्चाई तो यह थी कि उनके इन आँसुओं में उनका दिल बह-बहकर निकल रहा था।
मातम के उस माहौल में बैठे शर्माजी के अशांत हृदय और बेबस आँखों के आगे अनिल का चेहरा घूम गया।
‘‘बेटा, अब तुम आगे क्या करना चाहते हो, मैं सोचता हूँ कि अपनी काॅलेज़ की पढ़ाई के साथ-साथ कंपटीशन की तैयारी भी शुरू कर दो।’’शर्मा जी ने अनिल की स्कूली पढ़ाई खत्म होने पर उससे पूछा था और साथ ही अपनी राय भी ज़ाहिर की थी।
‘‘पिताजी मैं फ़ौज में जाना चाहता हूँं।’’ अनिल जैसे इस मुद्दे पर पहले ही अपनी राय बना चुका था।
‘‘क्या! तुम्हारे दिमाग में अचानक ये फ़ौज में जाने की बात कैसे आई ?’’शर्माजी अपने इकलौते पुत्र के इस उत्तर से सकपका से गए।
‘‘अचानक नहीं, दरअसल मैं खुद ही बहुत दिनों से इस विषय पर आपसे बात करना चाह रहा था।’’
‘‘लेकिन मैं तुम्हें फ़ौज में नहीं भेज सकता। तुम अभी जानते ही क्या हो उसके बारे में। तुम्हें पता भी है कि फ़ौजियों का जीवन कितनी कठिनाइयों से भरा होता है।’’बेटे के फैसले से उत्तेजित शर्माजी ने कुछ भड़कते हुए कहा।
‘‘पिताजी मुझे पता है कि फ़ौजियों का जीवन आम आदमियों से हटकर होता है। आप सोच रहे हैं कि मैं सिर्फ़ हवा में तीर छोड़ रहा हूँ। नहीं, मैंने रोहन के जीजाजी से सारी जानकारी ले ली है। उन्होंने ही बताया है कि कसरती और खिलाड़ी शरीर होने के कारण मैं इस नौकरी के सर्वथा योग्य हूँ। और फिर देश-प्रेम भी तो कोई..........’’
‘‘हूँ ...............तो ये बात है। तुझे चौधरी साहब के दामाद ने भड़काया है। अरे, देश-प्रेम की बातें अपने साले रोहन को क्यों नहीं समझाता। उसे करे न फौज़ में भर्ती।’’ शर्माजी ने अनिल की बात काटते हुए कहा।
‘‘पिताजी अभी आप ने पूरी बात सुनी ही कहाँ है। रोहन ने तो अपने जीजाजी के निर्देशन में फौज़ में जाने की पूरी तैयारी शुरू भी कर दी है। चौधरी अंकल भी उसे पूरा सपोर्ट कर रहे हैं।’’ अनिल ने उत्साहित होते हुए कहा, क्योंकि उसे पूरा विश्वास था कि उसके परम मित्र के जाने की बात सुनकर उसके पिता उसे भी अवश्य भेज देंगे। पर उसकी आशा के विपरीत शर्माजी ने कहा-‘‘लगता है चौधरी का दिमाग फिर गया है। पहले तो फौज़ी के साथ अपनी बेटी ब्याह कर उसका भविष्य दाँव पर लगा दिया और अब अपने बेटे को फौज़ में भेज रहा है।’’
‘‘पर पिताजी इसमें गलत क्या है। लोग इस नौकरी के लिए तरसते हैं। आपने देखा नहीं रोहन के जीजाजी को कितनी सुविधाएँ मिली हुई हैं।’’
‘‘मिली होंगी, पर तब तक, जब तक दुश्मन से सामना न पडे़। अरे! दुश्मन की गोली लगी नहीं कि सब यहीं का यहीं धरा रह जाता है।’’
‘‘पिताजी, ये बात सिर्फ़ सैनिकों पर ही तो लागू नहीं होती। मौत तो कभी भी, किसी भी द्वार से आ सकती है।’’ अनिल ने किसी कहानी में पढ़ी हुई इस पंक्ति को एक दार्शनिक की तरह दोहराया।
‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना। मैं इस बारे में कोई बहस नहीं चाहता। मैंने एक बार मना कर दिया, तो मेरा फैसला भगवान भी नहीं बदल सकता।’’
शर्माजी जानते थे कि एक दिन सबको मरना है, पर वे अपने इकलौते बेटे को ऐसी काँटों भरी राह देकर मौत से पहले मरने नहीं भेजना चाहते थे। और फिर सबसे बड़ी बात तो यह थी कि यदि अनिल फौज़ में चला जाएगा, तो इतनी मेहनत से तैयार किया उनका इतना बड़ा बिजनेस कौन सँभालेगा। भला यह भी कोई बात हुई कि घर की भरी तश्तरी को ठुकराकर बाहर हाथ पसारा जाए। और यही कारण था कि जब भी अनिल ने इस संबंध में बात की, उनका ज़बाव न में ही रहा। जब रोहन फौज़ में भर्ती हुआ, तब अनिल के साथ-साथ रोहन ने भी उन्हें अपनी जिद छोड़ने के जिए राज़ी करना चाहा, पर उनके पुत्र-प्रेम के आगे बेटे के देश-प्रेम का ज़ज्बा कमज़ोर पड़ता गया और हारकर अनिल को ही अपनी जिद छोड़नी पड़ी। वह एम0बी0ए0 कर के पिताजी के बिजनेस में लग गया।
पर सब कुछ तो इंसान के वश में नहीं होता। एक दिन अनिल बैंक से पैसे निकलवाकर लौट रहा था, तभी कुछ पीछा कर रहे बदमाशों ने उसके पैसै छीनने चाहे। जब उसने प्रतिरोध किया, तो उस पर फायर झौंककर भाग गए। शर्माजी ने उसे बचाने के लिए पूरी ताकत लगा दी, पर उसे बचा न सके।
अनिल की मृत्यु के सही एक महीने बाद आतंकवादियों से मुठभेड़ में रोहन के शहीद होने की खबर आई। आज उसके शव को तिरंगे में लपेटकर लाया गया था, शहर के बड़े-बड़े गणमान्य व्यक्तियों, नेताओं और सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने उसके शव पर माल्यार्पण किया। तोपों की सलामी दी गई। शर्माजी ने देखा कि चौधरीजी बेटे के जाने के ग़म में व्यथित तो हैं, पर उनके मुख पर छाए गर्व ने उस ग़म को काफ़ी हद तक मात दे दी है।
रोहन और अनिल दोनों की मृत्यु की खबर अखबारों में छपी। पर एक की मृत्यु ऐसी थी, जिस पर कोई भी फ़ख्र कर सकता था, तो दूसरे की मृत्यु सहानुभूति की पात्र थी।
उन्हें इस बात का दुःख था कि अनिल से सम्मानजनक मृत्यु का हक उन्होंने छीना था।
उनके कानों में अनिल के कहे स्वर फिर गूँज उठे-‘‘मौत तो कभी भी, किसी भी द्वार से आ सकती है।‘‘ काश, इन शब्दों का मर्म उनकी समझ में पहले आ गया होता, काश, वे मृत्यु के इस शाश्वत सत्य को समझ गए होते, तो अनिल से उसकी सम्मानजनक मृत्यु का हक तो वे नहीं छीनते।
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