महिला दिवस की सार्थकता
8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। इस दिन संसार के प्रायः सभी देशों में महिलाओं को सम्मान देते हुए, उनके महत्त्व, उनकी उपलब्धियों, योगदान, सहयोग आदि को सराहा जाता है। इस दिन कई देशों में राष्ट्रीय अवकाश भी रखा जाता है। इसे मनाने का मुख्य उद्देश्य यही है कि वर्ष के 365 दिनों में से कम-से-कम एक दिन पूरी तरह महिलाओं के नाम किया जाए। उनकी भावनाओं को सम्मान दिया जाए। परिवार, समाज और देश के प्रति किए गए उनके निस्वार्थ त्याग, प्रेम, समर्पण और बलिदान के लिए उन्हें मान दिया जाए तथा उनके प्रति आभार जताते हुए उनके आत्मसम्मान, आत्म गौरव की रक्षा की जाए।
कुछ महिलाओं के मन में यह प्रश्न उठता है कि जब हम वर्ष के 365 दिन, सप्ताह के सातों दिन तथा दिन के चौबीस घंटे अपने घर-परिवार एवं बच्चों को समर्पित कर देती हैं , तो हमारे हिस्से में अपने ढंग से जीने के लिए सिर्फ़ एक ही दिन क्यों? प्रश्न ठीक है, लेकिन हमें इसका उत्तर कुछ अलग नज़रिए से देखना होगा। दीपावली, होली, क्रिसमस या पोंगल आदि त्योहार हमारे लिए उमंग, उत्साह और खुशियाँ लेकर आते हैं, पर इन्हें वर्ष में एक बार ही मनाया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम बाकी दिन घरों में सफ़ाई या रोशनी न करें, पकवान न बनाएँ, नए कपड़े न पहनें या घर के सभी सदस्य एकजुट होकर कुछ मांगलिक कार्य न करें। महिला दिवस के बारे में भी यही बात है। यह तो सिर्फ़ इसलिए है, जिससे महिलाओं को यह अहसास कराया जा सके कि पूरा विश्व उन्हें मान-सम्मान देता है, वे परिवार, समाज, और देश की आवश्यकता हैं। सत्यता भी यही है कि वे किसी भी परिवार, समाज या देश के लिए हर पल विशिष्ट हैं, अपरिहार्य हैं और उसका अभिन्न अंग हैं।
हमारे देश भारत में यूँ तो प्राचीन काल से ही नारी की सत्ता को महत्त्व दिया जाता रहा है। नारियों के सम्मान में संस्कृत का एक श्लोक अत्यंत महत्त्वपूर्ण है-
‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रनार्यस्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।’’
अर्थात् जिस स्थान या कुल में नारियों की पूजा यानी सत्कार-सम्मान होता है, वहाँ देवताओं का निवास होता है अर्थात् सर्व सुख-शांति पाई जाती है और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती, वहाँ सब क्रिया निष्फल हो जाती हैं।
हिंदी में भी नारी को नर से श्रेष्ठ बताते हुए लिखा गया-
‘‘एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी।’’
जयशंकर प्रसाद ने तो यहाँ तक लिखा-
‘‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में,
पियूष स्त्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।’’
लेकिन, इनके विपरीत हिंदी के ही सुप्रसिद्ध कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने नारी की दयनीय स्थिति को इन शब्दों में परिभाषित किया-
‘‘नारी जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।’’
हमारे यहाँ नारी से संबंधित अनेक कविताएँ, किस्से, कहानियाँ या बातें पढ़ने-सुनने को मिलती रहती हैं। उनमें से किन्हीं में तो महिलाओं को देवी का रूप माना जाता है, किन्हीं में उन्हें मूर्ख, अबला आदि बताकर उनका उपहास उड़ाया जाता है।
एक ओर कहा जाता है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक नारी होती है तो दूसरी ओर सब झगड़ों-झंझटों की जड़ भी नारी को ही माना जाता है। रामायण का राम-रावण युद्ध हो या महाभारत का कौरव-पांडव युद्ध-सबका मूल कारण स्त्री (सीता, द्रौपदी) को ही माना गया है। सच तो यह है कि सतयुग, त्रेता, द्वापर या कलयुग-युग कोई भी हो, नारी को हर युग में अपने सम्मान, अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ी है। महिला की लड़ाई सदैव यह नहीं रही कि वह अपने को पुरुष से श्रेष्ठ साबित करना चाहती है, बल्कि वह तो अपना सम्मान, आत्मविश्वास, अपना अस्तित्व चाहती है। नारी न तो किसी नर पर भारी पड़ना चाहती है, न उनके मुकाबले कमज़ोर, क्योंकि नारी की तो किसी से भी तुलना है ही नहीं। नारी तो ईश्वर द्वारा रचित एक सुंदर सृष्टि है, एक अद्भुत निर्माण है। यही कारण है कि भगवान ने मातृत्व सुख नारी के हिस्से में बख्शा। भगवान भी जानते थे कि नारी जैसा धैर्य नर में हो ही नहीं सकता। बच्चों के पालन की बात हो या उन्हें संस्कार देने की, तो वह भी नारी के ही बूते की बात है। आप देख लें, संसार में जो भी चीज़ें मनुष्य के लिए अमृतदायी हैं, या धैर्य की प्रतिमूर्ति हैं, उन्हें ‘माँ’ की संज्ञा से विभूषित किया जाता है, पिता की नहीं, जैसे-गंगा माँ, गाय माता, धरती माँ आदि। और तो और हमारे देश भारत का नाम एक पुरुष ‘भरत’ के नाम पर पड़ा, पर फिर भी हम भारत को माँ कहते हैं, पिता नहीं।
नारी को यह समझना होगा कि वह अतुलनीय है, उसकी तुलना किसी से भी नहीं हो सकती। अतः उसे पुरुष से होड़ करना छोड़कर अपने नैसर्गिक गुणों के आधार पर इस धरती पर अपना परचम फहराना होगा। वैसे भी महिला सशक्तिकरण का अर्थ यह कदापि नहीं कि महिलाओं को पुरुषों से श्रेष्ठ साबित किया जाए। बस, महिलाओं को पुरुषों से हेय, कमतर न आँका जाए, उसे अपने सपनों में रंग भरने की आज़ादी हो, स्वयं अपने फैसले लेने का हक हो, अपनी जिंदगी को बेहतर ढंग से जीने की स्वतंत्रता हो। शायद ऐसा होने में ही ‘महिला दिवस’ की सार्थकता है।
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