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वर्तमान में भगवान महावीर के सिद्धांतों की सार्थकता







वर्तमान में भगवान महावीर के सिद्धांतों की सार्थकता



जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन त्याग, अहिंसा, संयम, साधना, तप का जीवन है। उनका मुख्य संदेश था-‘‘जीओ और जीने दो।’ वे छोटे-से-छोटे जीव को भी सताने या मारने के विरोधी थे। वे चाहते थे कि हमें दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखने चाहिए जो हम दूसरों से अपने लिए चाहते हों।

भगवान महावीर ने दुनिया को सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाया। उन्होंने मानव मात्र को आत्मिक और शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु पाँँच सिद्धांत बताए, जिनमें पाँच व्रतों को अपनाने पर बल दिया गया है। ये पंचव्रत इस प्रकार हैं-अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य।

हम ये जानने का प्रयत्न करते हैं कि वर्तमान समय में इन सिद्धांतों की क्या उपयोगिता व उपादेयता है? इन सिद्धांतों को अपनाकर मनुष्य किस प्रकार अपने को व्यवस्थित तथा अपने जीवन को सार्थक बना सकता है?

अहिंसा

भगवान महावीर अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म मानते थे। परंतु उनका अहिंसा सिद्धांत मात्र ‘जीओ और जीने दो’ तक ही सीमित नहीं था, उनकी अहिंसा का आदर्श था-दूसरों को जीने में सहायता करो और अवसर पड़ने पर जीव रक्षा के लिए बड़े-से-बड़े त्याग के लिए भी तत्पर रहो। 
भगवान महावीर के अनुसार-‘हर एक जीवित प्राणी के प्रति दया रखो, घृणा से विनाश होता है।’ भगवान महावीर जानते थे कि प्रत्येक व्यक्ति के मन में जीने की इच्छा होती है और अपने जीवन को बचाना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। पर बिना हिंसा के भी जीना असंभव सा है, जीवन को बनाए रखने के लिए न चाहते हुए भी कुछ हिंसा जीव को करनी पड़ जाती है। अतः उन्होंने कहा, ‘जीने के लिए जो ज़रूरी नहीं है, उस हिंसा को छोड़ दो।’ यदि अपने मौलिक अधिकार का प्रयोग अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किया जाए तो ठीक है, परंतु दूसरों के अस्तित्व को समाप्त करने का अधिकार किसी को नहीं है।

उनका अहिंसा दर्शन के प्रति ज्ञान बहुत सूक्ष्म, परिपक्व और गहन था। उन्होंने न सिर्फ़ शारीरिक कष्ट को ही हिंसा की श्रेणी में रखा, बल्कि अपने कठोर वचनों द्वारा किसी के हृदय को दुखाना, यहाँ तक कि किसी के बारे में अहितकर विचार रखने या किसी का बुरा सोचने को भी हिंसा का ही एक रूप बताया। इसे उन्होंने क्रमशः वाणी हिंसा तथा भाव हिंसा का नाम दिया। इसीलिए तो कहा जाता है कि जैन धर्म ‘भावना प्रधान’ धर्म है। किसी के प्रति बुरा करना तो दूर, बुरा सोचना भी स्वीकार्य नहीं है। 

भगवान महावीर ने कहा, ‘आपकी आत्मा से परे कोई शत्रु नहीं है, असली शत्रु आपके भीतर रहते हैं, वो शत्रु हैं-क्रोध, घमंड, लालच, आसक्ति और नफ़रत।’ अतः वे चाहते थे कि सांसारिक प्राणी को बाहरी दुनिया से लड़ने की बजाय अपने आप से लड़ना होगा, क्योंकि खुद पर विजय प्राप्त करना लाखों शत्रुओं पर विजय पाने से बेहतर है। जो स्वयं पर विजय कर लेगा, उसे आनंद की प्राप्ति होगी।

आज संपूर्ण विश्व अराजकता, आतंकवाद तथा युद्ध की विभीषिका झेल रहा है, ऐसे समय में यदि मनुष्य भगवान महावीर के कथनानुसार कर्म करें तो संसार में बैर-भाव, मार-काट, ऊँच-नीच की भावना तथा धर्म-संप्रदाय के नाम पर होने वाली हिंसा समाप्त ही हो जाएगी।

सत्य

झूठ न बोलना सत्य है, जबकि अहितकर वचन बोलना, किसी पर दोष मढ़ देना, किसी के खिलाफ़ झूठी गवाही देना, झूठी निंदा, चुगली, गलत या झूठे प्रमाण प्रस्तुत करना, किसी के धन को हड़पने की नीयत से वाणी में हेर-फेर करना आदि सत्य के विपरीत कार्य हैं। इन कार्यों को करने वाला व्यक्ति मन-ही-मन अपराध बोध से ग्रस्त होता है और दुःखी रहता है। भगवान  महावीर मानते हैं कि ‘प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है। यह आनंद बाहर से नहीं आता।’ यदि हम अपने मन को आनंदमय बनाना चाहते हैं तो हमें सत्य व्रत का पालन करना होगा। असत्य कार्यों से खुद को बचाना होगा।

अपरिग्रह

परिग्रह का अर्थ है-पदार्थ। ‘अ’ का अर्थ है-निषेध। साधारण रूप से देखा जाए तो पदार्थों का संग्रह न करना, उनमें आसक्ति न रखना ही अपरिग्रह है। महावीर जानते थे कि मानव इच्छाएँ अनंत हैं, जबकि प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। अतः प्रकृति के विनाश को रोकने का सर्वोत्तम मार्ग है-संसाधनों का सीमित उपभोग। मनुष्य अपना संपूर्ण जीवन दिखावे की प्रवृत्ति, दंभ की संतुष्टि, स्वार्थ व सुख की पूर्ति में ही व्यतीत कर देता है, जिसके लिए वह जीवन-भर अनेकानेक भौतिक वस्तुओं का संग्रह करता रहता है। जबकि सारी दुनिया जानती है कि भगवान महावीर ने एक राजसी क्षत्रिय परिवार में जन्म लेकर भी भौतिकतावादी वस्तुओं से कभी मोह नहीं रखा, आत्म कल्याण एवं साधना के मार्ग में प्रवृत्त होकर संपूर्ण राज-पाट, परिवार का त्याग कर दिया, उन्होंने एक लंगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा।

हमारा अनमोल मनुष्य जन्म व्यर्थ के दिखावे में फँसकर बरबाद न हो, इसीलिए भगवान महावीर हमें भी अपरिग्रह अपनाने का मार्ग सुझाते हैं। व्यक्ति को उतने ही पदार्थ ग्रहण करने चाहिए, जितने पदार्थ के ग्रहण से मन में मोह, राग-द्वेष, अहंकार आदि कलुषित विकार उत्पन्न न हों। आज लोग परिग्रह के वशीभूत होकर ही सौ-पचास रुपये तक के पीछे लड़ रहे हैं, ज़मीन के छोटे से टुकड़े के लिए एक भाई दूसरे भाई की जान लेने को आमादा है, स्वार्थवश बच्चे अपने माता-पिता की हत्या तक करने से नहीं हिचक रहे।

आज हम परिग्रह के गुलाम बनकर, भौतिकतावाद के आकर्षण में फँस लैपटाॅप, मोबाइल, महँगी गाड़ी आदि को ही अपनी दुनिया मान बैठे हैं। इन्हें पाने के लिए हम कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। हम इसके लिए लूट, धोखाधड़ी, हत्या, पैसा कमाने के गलत तरीके अपनाने के साथ-साथ अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण पल गँवा रहे हैं, फलस्वरूप हम अपने परिवार, अपने बच्चों के लिए समय नहीं निकाल पाते, हम उनसे तो दूर हो ही रहे हैं, साथ ही अपने से भी दूर हो रहे हैं। हम जीवन भर खुद से ही साक्षात्कार नहीं कर पाते। ऐसे समय में सीमित पदार्थों के उपभोग मात्र से पर्यावरण प्रदूषण, प्राकृतिक असंतुलन, असमानता, गरीबी, भुखमरी आदि समस्याओं पर तो लगाम कसेगी ही, साथ ही हम अहंकार, पैसे कमाने के गलत तरीकों, बेईमानी, अवसाद, तनाव, स्वार्थ आदि से मुक्त होकर स्वयं को आत्म-कल्याण, दान, सेवा, परोपकार के मार्ग में प्रवृत्त कर सकते हैं।

अचौर्य

किसी भी प्रकार की चोरी न करना ही अचौर्य है। आज के युग में इस व्रत को अपने जीवन में उतारने की अत्यंत आवश्यकता है, क्योंकि आज अधिकतर लोग खान-पान से लेकर रक्त तक में मिलावटखोरी कर रहे हैं। नाप-तौल में गड़बड़ी, घटिया माल देना, नकली वस्तुएँ बेचना, टैक्स की चोरी करना, फर्जी प्रमाणपत्र, जाली दस्तावेज़ बनाना, कालाबाज़ारी करना आदि कार्यों में धड़ल्ले से संलिप्त हैं। भगवान महावीर ने कहा, ‘सभी मनुष्य अपने स्वयं के दोष की वज़ह से दुःखी होते हैं और वे खुद अपनी गलती सुधारकर प्रसन्न हो सकते हैं।’ अतः यदि हमें अपना जीवन सुखी, प्रसन्न बनाना है तो आज से ही इस व्रत को धारण करना होगा।

ब्रह्मचर्य

आज के इस भोग-विलास युक्त जीवन में पाँचवे सिद्धांत यानी ‘ब्रह्मचर्य’ को अपनाने की तो महती आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है-‘आत्मा को विकारी भावों से हटाकर शुद्ध परिणिति में केंद्रित करना।’ भगवान महावीर ने गृहस्थ व्यक्ति को भी आंशिक रूप से इस व्रत को अपनाने का निर्देश दिया है। उनके अनुसार विवाह का उद्देश्य ’वासना को निमंत्रण नहीं, वासना पर नियंत्रण’ है। हम देखते हैं कि वर्तमान समय में क्षणिक कामुकता की संतुष्टि के लिए बलात्कार, छेड़छाड़ जैसी घटनाएँ आम हो रही हैं, पर-नारी गमन का प्रचलन बढ़ा है, इससे जनित गंभीर बीमारियों में भी वृद्धि हुई है। यदि हम भगवान महावीर के जीवन-वृत्त से प्रेरणा लेते हुए लेश मात्र भी इंद्रियों पर संयम कर लें तो भले ही हम ब्रह्मचर्य व्रत नहीं धारण कर सकते, पर, परस्त्रीगमन या बलात्कार जैसी घटनाओं पर तो लगाम लगा ही सकते हैं। साथ ही अपने जीवन को स्वस्थ, नीरोगी और अपनी आत्मा को शुद्ध बना सकते हैं।

भगवान महावीर ने कठोर तपस्या, साधना एवं गहन अध्ययन के उपरांत संसार भर के प्राणियों को इन पाँच व्रतों को अपने जीवन में अपनाने और उतारने का उपदेश दिया। यदि हम भगवान  महावीर के उपदेशों, शिक्षाओं, आदर्शों का एक प्रतिशत भी अपने जीवन में उतार लें तो निस्संदेह हमारी आत्मा का कल्याण तो होगा ही, साथ ही समाज में हर ओर सुख-शांति, प्यार-सौहार्द्र, सद्भावना एवं मानवता का साम्राज्य स्थापित होते देर न लगेगी।

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