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हिंदी लेख-गुरु की महिमा


गुरु की महिमा

बिनु गुरु होय ज्ञानअर्थात् बिना गुरु के ज्ञान नहीं प्राप्त होता।गुशब्द का अर्थ है-अंधकार, तथारुशब्द का अर्थ है-अंधकार का निरोधक। अर्थात् अंधकार को दूर करने वाले को गुरु कहा जाता है। गुरु ही हैं जो अज्ञान के अंधकार को मिटाते हैं, गुरु ही हैं जो सही और गलत का भेद बताते हैं, गुरु ही हैं जो सच्चा मार्ग दिखलाते हैं, गुरु ही हैं जो भवसागर से तारते हैं और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यही कारण है कि गुरु की महिमा के गीत गाये जाते हैं और उन्हें सर्वोपरि स्थान दिया जाता है-

‘‘सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत कियो उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार।।’’

कबीरदास जी ने तो गुरु की महिमा का बखान करते हुए उन्हें ईश्वर से भी प्रमुख स्थान दिया है-

‘‘गुरु गोबिन्द दोउ खड़े, काकै लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपणैं, गोबिन्द दियो बताय।’’

उन्होंने ऐसा इसलिए कहा है, क्योंकि एक सच्चा गुरु ही हमें ईश्वर तक पहुँचा सकता है। वास्तव में जीवन में हमारे द्वारा उन्नति करने पर सबसे अधिक या तो माता-पिता प्रसन्न होते हैं या एक सच्चा गुरु। यही वे लोग होते हैं, जो किसी स्वार्थवश नहीं, बल्कि हृदय से हमें आगे बढ़ते देखना चाहते हैं। कहा भी तो जाता है कि एक पिता तब अधिक प्रसन्न होता है, जब उसे उसकी संतान के द्वारा पहचाना जाए। ठीक उसी प्रकार एक गुरु को भी सच्ची संतुष्टि तभी मिलती है, जब उसका शिष्य उससे भी एक कदम आगे निकल जाए। यदि शिष्य की तरक्की पर कोई कहता है किगुरु गुड़ रह गया और चेला शक्कर हो गया-तब गुरु शिष्य से ष्र्या  नहीं करता, वरन् उसकी छाती यह सोचकर गर्व से चोेेैड़ी हो जाती है कि चलो, शिष्य ने उसकी लाज रख ली, उसकी मेहनत सफल सिद्ध हुई। गुरु की इन्हीं विशेषताओं को परिलक्षित करते हुए उसे अमृत की खान तक कहा गया है-

‘‘यह तन विष की बेलरी, गुरु अमरित की खान।
सीस दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।’’ 

नूर मुहम्मद ने भी कहा है-
‘‘गुरु बिनु पंथ पावै कोई, कैतिको ज्ञानी ध्यानी होई।।’’
गुरु येन-केन-प्रकारेण अपने शिष्य को सही राह पर लाने का प्रयास करता है, उसका जीवन सँवारता-सजाता है। वह एक कुंभकार की तरह तब तक संतुष्ट नहीं होता, जब तक उसकी घड़ा रूपी शिष्य सही आकार ग्रहण कर ले-

‘‘गुरु कुम्हार सिस कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
भीतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।’’

महर्षि अरविंद ने कहा है-‘‘गुरु राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींचकर महाप्राण शक्तियाँ बनाते हैं।’’

लेकिन, अफसोस है कि आज के समय में गुरु-शिष्य के रिश्तों में पहले जैसी, श्रद्धा, प्रेम, विश्वास तथा अपनापन नहीं है। आज तो गुरु में पहले की तरह त्याग और समर्पण की भावना रह गई है और ही शिष्य में गुरु के प्रति आदर और विश्वास। आज गुरु-शिष्य का रिश्ता पैसों के लेन-देन तक सीमित रह गया है। शिष्य समझता है कि मैं गुरु से मुफ़्त में शिक्षा नहीं ले रहा, अतः मुझे उनसे किसी प्रकार दबने की ज़रूरत नहीं है। वह गुरु के द्वारा लागू अनुशासन को बंधन समझता है। गुरु भी शिक्षा जैसे अहम् विषय को मात्र किताबी ज्ञान से जोड़कर खानापूरी करते दिखाई देते हैं। उन्हें तो शिष्यों के सर्वांगीण विकास से मतलब है, उनके चारित्र्य-निर्माण से।

अब आवश्यकता है एक बार फिर से गुरु-शिष्य के बीच पावन रिश्ता पनपने की। और इसके लिए सर्वप्रथम प्रयास गुरुओं की तरफ़ से ही होना चाहिए, क्योंकि गुरु अनुभव, शिक्षा और उम्र में अपने शिष्यों के मुकाबले परिपक्व होता है। गुरुओं को समझना होगा कि सिर्फ़ रटी-रटाई शिक्षा देकर वे अपने शिष्यों का दिल और विश्वास नहीं जीत सकते, क्योंकि ऐसे ज्ञान को तो आज इंटरनेट पर एक क्लिक द्वारा वे आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। आवश्यकता है शिष्यों को समय देने की, उनकी बातों को धैर्यपूर्वक सुनने की, अपनी बात को रोचक ढंग से उनके जेहन में उतारने की, उन्हें भावात्मक एवं सामाजिक रूप से मज़बूत बनाने की।

आज ऐसे समय में जबकि माता-पिता के पास तो बच्चों की समस्याओं को सुनने-समझने का समय है, उनको सुलझाने का धैर्य, तब तो गुरुओं का दायित्व अपने शिष्यों के प्रति और भी बढ़ जाता है। उन्हें आज सिर्फ़ एक गुरु की भूमिका निभानी है, बल्कि एक अभिभावक का उत्तरदायित्व निभाने की महती ज़िम्मेदारी का भी निर्वहन करना है।

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