विद्यार्थी जीवन
विद्यार्थी की परिभाषा है-‘‘विद्यायाः अर्थी’ अर्थात् विद्या का इच्छुक या अभिलाषी। इसका अर्थ यही हुआ कि विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति की इच्छा ही सर्वोपरि रखनी चाहिए, चाहे इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु उसे शारीरिक सुख प्राप्त करने की इच्छा को तिलांजलि ही क्यों न देनी पड़े। संस्कृत में कहा भी गया है-‘‘सुखार्थिनः कुतो विद्या, विद्यार्थिनः कुतो सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेत् विद्यां, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।’’
अर्थात् सुख चाहने वाले के पास विद्या कहाँ? विद्या चाहने वाले के पास सुख कहाँ सुख चाहने वाले को विद्या (प्राप्ति का विचार) त्याग देना चाहिए और विद्या चाहने वाले को सुख का त्याग कर देना चाहिए।
हमारी भारतीय परंपरा में प्राचीन काल में गुरुकुल की अवधारणा थी। गुरुकुल में पच्चीस वर्ष की आयु तक रहकर छात्र विभिन्न प्रकार की विद्याओं का अर्जन करता था; क्योंकि यही वह आयु है जिसमें विद्यार्थी पर न तो किसी प्रकार के दायित्वों का भार होता है और न आर्थिक चिंता। वह अपना मानसिक, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास स्वतंत्र एवं निश्चिन्त होकर कर सकता है। गुरुकुल में शांत एवं प्राकृतिक वातावरण के साथ-साथ शुद्ध एवं सात्विक भोजन दिया जाता था। इसके पीछे यही मंशा हुआ करती थी कि छात्र तामसिक भोजन से उत्पन्न तामसिक विचारों से बच सकें। क्रोध, उत्तेजना, ईष्र्या तथा हृदयगत मलिनता का प्रमुख कारण तामसिक भोजन (प्याज, मांस, मदिरा आदि) ही है। परंतु आज का विद्यार्थी आधुनिक गुरुकुल (छात्रावास) में रहकर वहाँ के नियम-पालन और अनुशासन की कल्पना-मात्र से ही घबरा उठता है।
संस्कृत साहित्य में विद्यार्थी के पंच लक्षण बताए गए हैं-
‘‘काक चेष्टा, वको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणम्।’’
अर्थात् कौए जैसी चेष्टा, बगुले जैसी एकाग्रता, और कुत्ते जैसी चैकन्नी निद्रा, कम भोजन ग्रहण करना तथा गृह को त्यागना-विद्यार्थी के ये पाँच लक्षण हैं। लेकिन आज के विद्यार्थियों में इन लक्षणों का शत-प्रतिशत रूप देखने को मिलना लगभग असंभव-सा है। आज का विद्यार्थी विद्या-प्राप्ति के मामले में न तो कौए जैसी चेष्टा ही दिखाता है, न बगुले जैसी एकाग्रता। आज जब विद्यार्थी पढ़ने बैठता है तो पहले टी0 वी0 आॅन कर लेता है या कान में ईयरफोन की लीड लगा लेता है।
वह यह नहीं जानता कि श्रम से ही विद्या प्राप्त होती है-
‘‘विद्यार्थी सहते कष्टं, विद्यार्थी कुरुते श्रमम्।
विद्यार्थी लभते विद्यां, धनं च तदनन्तरम्।’’
विद्यार्थियो! कम-से-कम अपने विद्यार्थी जीवन में भौतिक सुखों की कामना का मोह अवश्य त्याग दो। क्योंकि यदि आज तुमने यह मोह त्याग दिया तो तुम एक आदर्श विद्यार्थी ही नहीं वरन् एक सभ्य, सुसंस्कृत एवं अनुशासनयुक्त श्रेष्ठ नागरिक भी अवश्य बनोगे, और तब, सारे सुख स्वतः तुम्हारे समीप आ जाएँगे, क्योंकि विद्या ही सब सुखों का मूल स्त्रोत है-
‘‘विद्या ददाति विनयं, विनयं याति पात्रताम्।
पात्रतावाप्नोति धनं, धनाद् धर्मम् ततः सुखम्।’’
छात्र को हमेशा अध्ययनरत रहना चाहिए, क्योंकि अध्ययन से ही मनुष्य के व्यक्तित्व का सही मायने में विकास होता है और वह सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है। साथ ही उन्हें माता-पिता तथा गुरुजन द्वारा लगाए गए अंकुश एवं बंधन को भी महत्त्व देना चाहिए, जिससे उनके अंदर शील, संयम, ज्ञान-पिपासा तथा नम्रता की वृत्ति जाग्रत हो। क्योंकि ये कहीं-न-कहीं उसकी भलाई के लिए ही हैं। ये बंधन ही उसे अनुशासन में बाँधते हैं। अन्यथा तो वह पूरे दिन टी0 वी0, मोबाइल, कंप्यूटर या सैर-सपाटे में ही लगा रहेगा और अपने लक्ष्य से भटक जाएगा। यदि छात्र स्वयं अस्थिर एवं कुरूप मानसिकता वाला होगा तो उससे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह बड़ा होकर श्रेष्ठ नागरिक बनेगा और सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण में अपना सहयोग देगा।
उर्दू शायर हाली ने भी कहा है-
‘‘कब तक आखिर ठहर सकता है वह घर,
आ गया बुनियाद में जिसकी खलल।’’
अतः विद्यार्थियो! आलस्य का त्याग करो और विद्या प्राप्ति हेतु कठिन श्रम में जुट जाओ, क्योंकि आलसी व्यक्ति के पास विद्या नहीं आती और विद्या से रहित के पास धन नहीं आता और धन से हीन व्यक्ति का कोई मित्र नहीं होता तथा बिना (श्रेष्ठ) मित्र के सुख नहीं प्राप्त होता, यथा-
‘‘अलसस्य कुतः विद्या, अविद्यस्य कुतः धनम्।
अधनस्य कुतः मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम्।।’’
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