वर्तमान परिप्रेक्ष्य में धर्म की उपयोगिता
इस विषय की गहराई में जाने तथा धर्म की उपयोगिता के विषय में बात करने से पूर्व हमें यह जान लेना चाहिए कि आखिर धर्म है क्या? साधारण रूप में प्रतिदिन मंदिर जाना, पूजा-पाठ करना, व्रत-उपवास रखना तथा तीर्थ-स्थलों की यात्रा करना आदि को ही धर्म मान लिया जाता है और इनका पालन करने वाले को धार्मिक। लेकिन यह धर्म का उथलापन है। धर्म मात्र इस दिखावे का नाम नहीं है, वरन् ‘धर्म’ शब्द अपने में बहुत गहराई समेटे हुए है।‘धर्म’ का शाब्दिक अर्थ है-धारण करना। जीवन को उत्कृष्ट ढंग से जीने के लिए हमें जो गुण धारण करने चाहिए, वही धर्म है। धर्म मानव को मानव से जोड़ता है, धर्म अहिंसा, सत्य, प्रेम, मानवीयता जगाता है, धर्म हमारी आत्मा को, हमारी चेतना को पवित्र, शुद्ध एवं उदात्त बनाता है। यही कारण है कि जैन धर्म कहता है कि यदि व्यक्ति अपनी आत्मा को शुद्ध और पवित्र कर ले, तो वह स्वयं भगवान बन सकता है। जैन धर्म में भगवान को नहीं अपितु उनके गुणों को नमस्कार है।
अब प्रश्न उठता है कि वर्तमान प्ररिप्रेक्ष्य में धर्म की उपयोगिता है या नहीं, यदि है तो कितनी है? इस प्रश्न का उत्तर जानने से पहले हमें एक दृष्टि वर्तमान परिप्रेक्ष्य पर भी डालनी चाहिए। आज हम देखते हैं कि हर तरफ़ अराजकता, भ्रष्टाचार, झूठ, फरेब, अविश्वास का वातावरण व्याप्त है। रिश्तों की कोई अहमियत नहीं रही, परिवार टूट रहे हैं, धर्म और ईश्वर के नाम पर नफ़रत के बीज बोये जा रहे हैं, पर्यावरण को प्रदूषित किया जा रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज चरित्र का पतन हो रहा है, आत्मा का हनन हो रहा है।
अब हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य और धर्म को आपस में जोड़कर देखते हैं, तो स्पष्ट होता है कि आज आत्मा का पतन हो रहा है और धर्म हमारी आत्मा को उदार और उदात्त बनाता है तो इसी बात से धर्म की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है।
धर्म हमारी जीवन-शैली से जुड़ा है। हमारे पूर्वज अत्यंत दूरदर्शी और विवेकवान थे, इसीलिए उन्होंने जीवन और जगत के लिए जो भी श्रेष्ठ या कल्याणकारी है, उसे धर्म से जोड़ दिया था। तुलसी, पीपल, आम, अशोक, केला आदि अनेक पेड़ों को धर्म से जोड़ दिया, जिससे लोग वृक्षों की महिमा समझें और उनका पुत्रवत् संवर्धन करें। जीवनदायिनी नदियों को ‘माता’ की संज्ञा दी, जिससे लोग जल को प्रदूषित एवं व्यर्थ न करें। सूर्य, वायु, अग्नि आदि प्राकृतिक उपादानों को ईश्वर की संज्ञा दे दी, जिससे हम हमेशा प्रकृति से जुडे़ रहें, इनका महत्त्व और उपयोगिता समझें। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने जल, पेड़, वन आदि की सुरक्षा को सदैव हमारा धर्म बताया। उन्होंने तो व्यवसायों तक को धर्म से जोड़ दिया था, जिससे लोग अपने पेशे से बेईमानी न करें। यही कारण है कि उन्होंने कहा कि चिकित्सक का धर्म मरीज़ को जीवनदान देना है तो सैनिक का धर्म देश की सुरक्षा है। इन सब उदाहरणों से यह तो स्पष्ट है कि हमारे जो भी कार्य हमारी आत्मा को श्रेष्ठ बनाते हैं, समाज एवं मानवता के लिए हितकारी हैं, वे सब धर्म के अंतर्गत आते हैं। तो क्या आज हमें इस धर्म की आवश्यकता नहीं है? है, बल्कि पहले से अधिक है।
आज हम देखते हैं कि समाज में बुजुर्गों की उपेक्षा की जा रही है, गुरु, साधु, ज्ञानियों को पर्याप्त सम्मान नहीं दिया जा रहा, धन, पद एवं आगे बढ़ने की होड़ में अपनी आत्मा की आवाज़ को कुचला या दबाया जा रहा है, नैतिक मूल्यों को पुरानी सभ्यता कहकर बिसराया जा रहा है तथा धर्म का उपहास उड़ाया जा रहा है। इन सबके मूल में यही बात है कि हमने अपनी पीढ़ी से धर्म के विषय में चर्चा करना बंद कर दिया है। उन्हें धर्म के वास्तविक स्वरूप से साक्षात्कार नहीं कराया है। हमें उन्हें इस बात का भान कराना चाहिए कि धर्म हमारे जीवन का एक अटूट अंग है। हमें चाहिए कि हम स्वयं भी धर्म को अंगीकार करें और अपनी वर्तमान पीढ़ी को भी अपने जीवन, अपने कर्मों में धर्म अपनाने के लिए प्रेरित करें। पूजा-पाठ तथा व्रत-उपवास को ही धर्म की संज्ञा देने वाले लोग यदि जीवन में अनैतिक व्यवहार करते हैं तो उन्हें धार्मिक कहलाने का कोई हक नहीं है। जैन धर्म में तो ‘धर्म’ को अत्यंत व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है। जैन धर्म अपनी वाणी तथा अपने व्यवहार की शुद्धता की ही बात नहीं कहता, बल्कि वह तो अपने भावों के द्वारा भी किसी का बुरा होने या करने का ख्याल भी मन में नही लाने को कहता है। भला ऐसे धर्म की आवश्यकता किसको नहीं होगी? हर प्राणी को होगी।
न सिर्फ़ भारतवर्ष में बल्कि संपूर्ण विश्व में सदाचार, मानवता, प्रेम, सहिष्णुता, भाई-चारा, परोपकार, दया, आध्यात्मिकता, नैतिकता तथा सत्य आदि शाश्वत मूल्यों को प्रधानता दी जाती है। और हम यह भी मानते हैं कि ये सारे मानवीय मूल्य प्रत्येक धर्म के मूल में समाये होते हैं। इससे ही स्पष्ट है कि यदि हम धर्म के वास्तविक अर्थ को समझेंगे, उसकी गहराई में उतरेंगे और फिर धर्म को अंगीकार करेंगे, तो हमारे भीतर स्वतः ही ये सभी गुण आ जाएँगे। कौन ऐसा प्राणी होगा जो इन गुणों को स्वयं में या अपनी संतान में नहीं देखना चाहेगा? यदि ऐसा कोई नहीं होगा, तो फिर हमें समझ लेना चाहिए कि धर्म की उपयोगिता मानव के लिए हर कदम, हर परिवेश, हर स्थान पर है।
अंत में मेरा इतना ही कहना है कि अपने कर्तव्यों का भली प्रकार निर्वहन करना और हमारे द्वारा प्राणी-मात्र की आत्मा को कष्ट न पहुँचना ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। ऐसे धर्म को सभी को अपनाना चाहिए। ऐसे धर्म की उपयोगिता न केवल वर्तमान में, बल्कि हर काल में, हर हाल में हमेशा रही है और रहेगी।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें