प्रकृति : परम उपकारी
‘परोपकार’ शब्द दो पदों से मिलकर बना है-पर+उपकार। ‘पर’ का अर्थ है ‘दूसरा’ और ‘उपकार’ का अर्थ है ‘भलाई’। अर्थात् दूसरों की भलाई करना ही परोपकार है। प्रायः हम ‘परोपकार’ का संबंध सीधे मनुष्य-मात्र से जोड़कर देखते हैं। इसका कारण यह है कि हम ‘परोपकार’ को मानव का एक अमूल्य गुण मानते हैं। हमारी दृष्टि में प्रत्येक मनुष्य के भीतर परोपकार की भावना अवश्य होनी चाहिए। हमारे देश के इतिहास में कर्ण, दधीचि आदि अनेक महापुरुष हुए हैं, जो अपने परोपकारी स्वभाव के कारण अमर हो गए।पर, यहाँ हम बात कर रहे हैं-प्रकृति में परोपकार की भावना की। हमारे विचार से परोपकार के मामले में प्रकृति की बराबरी कोई नहीं कर सकता। चाहे हम जीवनदायिनी हवा की बात करें, चाहे क्षुधा शांत करने वाले वृक्षों की, चाहे प्यास बुझाकर संतुष्टि प्रदान करने वाले अमृत तुल्य जल की। चाहे बात की जाए सूरज की ऊर्जादायिनी किरणों की, चाहे धरती की प्यास बुझाने वाले काले मेघों की। प्रकृति का प्रत्येक उपादान संपूर्ण मानव समाज पर परोपकार ही तो कर रहा है।
सोच कर देखिए, पेड़-पौधे अपने फल किसे प्रदान करते हैं? फल ही नहीं, वरन् फूल, मेवा, औषधि, लकड़ी, अनाज, सब्जियाँ आदि सब ही तो वे दूसरों को दे देते हैं। इसके अलावा कई वृक्षों की पत्तियाँ, छाल, जड़, टहनी तथा गोंद आदि भी अनेकानेक तरह से मानव के लिए उपकारी है। काले-काले मेघा देखकर बच्चे, बूढ़े, पशु-पक्षी-सभी का मन हर्षित हो जाता है। बादल जगह-जगह से वाष्पीय जल लेकर अपने शरीर का निर्माण करते हैं, पर लोगों के सूखे अधर तथा खाली गागर देखकर उनसे रहा नहीं जाता और वे पल भर भी नहीं लगाते अपना अस्तित्व समाप्त करने में। उन्हें अपने शरीर से बढ़कर लोगों को तृप्त करने में ही अपने जीवन की सार्थकता नज़र आती है। नदियाँ कितनी मुसीबतों का सामना करते हुए, पहाड़-चट्टान-पत्थर आदि से टकराते हुए भी निरंतर आगे बढ़ती रहती हैं और लाखों मील चलकर अपने अमृतदायी जल के खनिज पदार्थों से धरती को सींचती रहती हैं। प्रकृति की इसी महिमा का गान करते हुए कहा गया है-
‘‘बिरछ कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचे नीर।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा सरीर।।
अर्थात् वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाता, नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती। साधु (सज्जन) लोग दूसरों की भलाई के लिए ही अपना शरीर धारण करते हैं।
प्रकृति की एक और विशेषता है। जहाँ मनुष्य किसी पर उपकार करके गर्व और दंभ से भर बैठता है, औरों को अपने से कमतर समझने लगता है, थोड़ा-सा धन-रूप या बुद्धि पाकर अहंकार से सराबोर हो जाता है, वहीं प्रकृति इससे उलट स्वभाव की होती है। जैसे-जैसे उसकी संपदा बढ़ती है, वैसे-वैसे वह नम्र और विनम्र होती चली जाती है। आपने देखा ही होगा कि फल आने पर पेड़ झुक जाते हैं, पानी भरने पर बादल और नीचे आ जाते हैं, अधिक पानी होने पर नदियों में गंभीरता आ जाती है, फल पकने पर अपने आप पेड़ से अलग हो जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यही है कि ‘परोपकार’ मात्र मनुष्यों का ही गुण नहीं है, वरन् प्रकृति का भी अहम् लक्षण है। हमें प्रकृति के इस गुण का सम्मान करना चाहिए। इस परम उपकारी प्रकृति को न स्वयं नष्ट करना चाहिए और न दूसरों के हाथों बरबाद होते देखना चाहिए, क्योंकि-
‘‘प्रकृति की महिमा है न्यारी, धीरता, उदारता गुणों की धारी।
सारे जग का भला ये करती, है ये है महान परम उपकारी।।’’
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