महिला सुरक्षा हेतु मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता
इस लेख में हमने यह देखने का प्रयत्न किया है कि महिलाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए चारित्र्य एवं जीवन-मूल्य परक शिक्षा कितनी ज़रूरी है।
दामिनी के साथ हुए वहशी कांड के साथ ही अचानक महिलाओं की सुरक्षा को लेकर अनेक सवाल उठ खड़े हुए थे। लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ और बयानबाजियाँ
सामने आई थीं। सभी महिलाओं को ही सीख देने में लगे थे। मसलन, महिलाओं को रात में घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, महिलाओं को अनजान व्यक्ति के साथ नहीं जाना चाहिए, महिलाओं को अकेले नहीं जाना चाहिए, इत्यादि...इत्यादि। पर इस सब में एक बात तो स्पष्ट है कि समाज के माहौल को बिगाड़ने वाले दूषित और विकृत मानसिकता वाले पुरुष जाति को सीख देने वाला एक भी स्टेटमेंट सामने नहीं आया। तो, क्या सब एहतियात रखने की आवश्यकता सिर्फ़ महिलाओं को ही है? जब किसी महिला की अस्मत को लूटा जाता है, तो वह कलंकित मानी जाती है, पर अस्मत लूटने वाला पुरुष कलंकित क्यों नहीं होता ? क्या ऋषि-मुनियों ने 25 वर्ष की आयु तक जिस ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक बताया था, वह पुरुषों के लिए नहीं था, यदि था तो पुरुष को भी अपनी काम-वासनाओं पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक है। यदि वह किसी की इज़्जत पर डाका डालता है, तो उसे कलंकित मानकर क्यों नहीं दुत्कारा जाता ?
आशाराम बापू का कहना था कि दामिनी को उन वासना के भूखे भेड़ियों के आगे गिड़गिड़ाना चाहिए था, उसे ‘भाई’ संबोधन करना चाहिए था, फिर वे लोग उसे छोड़ देते। कितनी हास्यास्पद और बचकानी बात है कि जिन लोगों पर हवस का भूत सवार हो, उन पर इस तरह की बातों का कोई असर होता। और फिर यह कैसे कह सकते हैं कि मुसीबत में फँसी उस लड़की ने उन शैतानों से उसे छोड़ने की कोई गुहार न लगाई हो। फिर वे सभी लड़के सभ्य कहे जाने वाले इस समाज का ही तो एक हिस्सा थे, फिर उनके मन में दामिनी को देखकर बहन वाली भावना क्यों नहीं जागी ?
इसका सीधा-सादा अर्थ यही है कि आज़ हमारा युवा वर्ग दिग्भ्रमित है, उसे कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का फ़र्क ही समझ में नहीं आता। मात्र बड़े-बड़े कानून बना लेना ही इस समस्या का सही और एकमात्र उपाय नहीं हैं। यह तो ऊपर से थोपा हुआ एक डर है। बिना कानूनी भय के पुरुषों के मन में महिलाओं के प्रति आदर के भाव क्यों नहीं पैदा हो सकते ? पर यह तभी संभव है जब हमारी शिक्षा-नीति में सदाचार, आदर्श, अनुशासन, चारित्र्य और नैतिक मूल्यपरक शिक्षा को शामिल किया जाए। संस्कृत के नीतिपरक दोहों में पराई स्त्री को माता के समान समझने की बात कही गई है। हमारा बड़ा दुर्भाग्य है कि आज अधिकतर पाठ्यक्रम में न तो आरुणि, ध्रुव, एकलव्य, श्रवणकुमार जैसे संयमी, अनुशासित और संकल्पी चरित्रों को पढ़ाया जाता और न ही सावित्री, सीता, सती अनसुइया, जीजाबाई आदि का स्मरण किया जाता।
आज शिक्षा को रोज़गाार देने के साथ-साथ मूल्य-प्रदायक भी होना चाहिए। समाज में हुए मूल्यों के विघटन ने ही इस तरह की परिस्थिति को जन्म दिया है। अतः हमारे राजनेता और शिक्षा-शास्त्रियों को निजी-स्वार्थ छोड़कर एक ऐसा पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए, जिसमें किसी लड़की को हवस केे पुजारियों के आगे गिड़गिड़ाकर बहन का वास्ता न देना पड़े, बल्कि हर पुरुष का मन इतना संयमी और अनुशासित हो कि किसी भी लड़की को देखकर उसके मन में कुत्सित विचार ही न उठें। मूल्य और चरित्र प्रधान शिक्षा न सिर्फ़ बलात्कार की घटनाओं पर ही रोक लगा सकेगी, बल्कि लड़कियों को भी उनकी हद में रहने की प्रेरणा देगी। उन्हें, संस्कारी, आत्म-सम्मानी, निडर और आत्म-संयमी बनाएगी, जिससे कोई भी लड़का उनका भावात्मक और शारीरिक शोषण नहीं कर पाएगा।
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