एक मेधावी युवक बहुत अच्छी कंपनी में नौकरी करता था। उसकी मेहनत एवं लगन से प्रभावित होकर उसके मालिक ने उसे अपनी विदेश स्थित कंपनी में भेज दिया। जाने से पहले युवक बेहद चिंतिंत था। चिंता यह थी कि उसे जिस देश में भेजा जा रहा था, वह वहाँ की कार्यप्रणाली से परिचित नहीं था और उसे वहाँ एक ऊँचे पद पर भेजा जा रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह वहाँ के लोगों के साथ कैसे तालमेल बिठा पाएगा?
उसकी चिंता दूर करते हुए उसकी माँ ने उसे सीख दी और कहा, ‘‘तुम बस एक बात ध्यान रखना कि वहाँ तुमसे कोई कुछ भी कहे, तुम्हें नाराज़ नहीं होना है, बल्कि तुम अपनी हर आलोचना, हर बेइज़्जती को हँसकर सहते जाना, पलट कर किसी से कुछ नहीं कहना।’’
युवक अपनी माँ की कही हुई बात को गाँठ बाँधकर दूसरे देश चला गया। वहाँ के कर्मचारी मौका ढूँढ़-ढूँढ़ कर उसकी पोशाक, भाषा और कार्य करने के ढंग आदि पर व्यंग्य किया करते। किसी-न-किसी बहाने उसे नीचा दिखाने का कार्य किया करते। क्योंकि उन्हें यह बात नागवार गुज़र रही थी कि किसी और देश का व्यक्ति उनका बाॅस बनकर आ गया था। पर वह बिना नाराज़ हुए प्रसन्न मन से कार्य किया करता। प्रारंभ में तो उसे बड़ी दिक्कत आई, क्योंकि उसे अपने गुस्से पर किसी तरह काबू करके, ऊपर से जबरन प्रसन्न रहने का दिखावा करना पड़ता था, पर धीरे-धीरे लगातार ऐसा करने से यह उसकी आदत में आ गया। अब हर समय प्रसन्न रहना उसकी मज़बूरी या माँ को दी हुई सीख का पालन भर नहीं था, बल्कि अब यह उसकी एक आदत बन चुका था।
कार्य के प्रति उसकी लगन, समर्पण भावना और हर समय प्रसन्नचित्त होकर कार्य करने की इस अनूठी प्रणाली को देखकर धीरे-धीरे सभी कर्मचारियों ने भी उसकी आलोचना बंद कर दी। अब सभी कर्मचारी उसे सहयोग करते और उसके मुताबिक कार्य करते।
अब उसकी देख-रेख में कंपनी बहुत तरक्की करने लगी थी। वहाँ के सभी कर्मचारी भी इस उपलब्धि से बहुत खुश थे। एक बार किसी पत्रकार ने उस युवक से उसकी सफलता का रहस्य पूछा, तो उसका जबाव था, "मनुष्य को अपनी आलोचनाओं को सहन करने और हर कार्य को प्रसन्न होकर करने की आदत डालनी चाहिए। यदि मैं ऐसा नहीं कर पाया होता, तो अपनी आलोचनाओं से घबराकर कब का या तो नौकरी छोड़ चुका होता या तनावग्रस्त होकर आत्म-हत्या कर लेता। लेकिन जब व्यक्ति लोगों के ताने, व्यंग्य सब सहना सीख जाता है और उन पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दिखाता है, तो वह अपनी मंज़िल को पा ही लेता है।"
सीख-इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपनी आलोचनाओं को सुनकर घबराना नहीं चाहिए और न ही नकारात्मक विचारों को अपनाना चाहिए, क्योंकि अपनी हँसी की परवाह न करने वाले लोग ही कुछ विशेष कर पाते हैं। जो ‘लोग क्या कहेंगे’ इस चिंता में जीते हैं, वे अपनी सफलता के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाते। साथ ही यह सीख भी मिलती है कि ‘प्रसन्नता’ वह गुण है, जो हर व्यक्ति को अपना बना लेती है। क्रोधी व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता।
आलोचकों की परवाह न करना, आलोचकों के स्मारक नहीं होते
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर पंक्तियां
हटाएंआलोचकों की परवाह न करना, आलोचकों के स्मारक नहीं होते
जवाब देंहटाएंBahut sundar mata
हटाएंधन्यवाद पुत्री जी 🙂
हटाएंआलोचकों की परवाह न करना, आलोचकों के स्मारक नहीं होते
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