मध्यमवर्गीय सोच
‘‘बहूजी मैं आठ-दस दिन तक काम पर नहीं आ पाऊँगी।’’ घर में काम करने वाली महरी श्यामा ने कहा।
‘‘आठ-दस दिन! क्यों , कल भी तो तूने छुट्टी कर ली थी, अब इतने दिनों के लिए कहाँ चल दी ? ’’
‘‘जा कहीं नहीं रही हूँ, गायत्री का रिश्ता दूसरी ज़गह पक्का हो गया है।’’
‘‘कब ? तूने तो बताया ही नहीं।’’ रागिनी ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘बहूजी मैं आप से ये तो कह ही रही थी कि गायत्री के मामा उसका दूसरा ब्याह करने का हल्ला मचा रहे हैं। अब मुझे तो काम से फुरसत मिलती नहीं है। पहला रिश्ता ही बड़ी मुश्किल में ढूँढ़ा था और अब दूसरा...........और फिर पहले तो कुँआरी थी, पर अब ब्याही-ठाही के लिए तो और भी मुश्किल आती।’’
‘‘फिर अचानक ये लड़का किसने ढूँढ़ा?’’
‘‘गायत्री के मामा ने। उनके साथ फैक्ट्री में काम करता है। उन्हीं ने बात चलाई थी। कल वो और उसके घरवाले गायत्री को देखने आ गए और हाथों-हाथ पक्का कर गए। अब लड़के वाले और गायत्री के मामा दोनों ही उसका ज़ल्दी ब्याह करना चाहते हैं, क्योंकि कहीं उसके पहले मरद को पता चल गया तो लड़की के ब्याह में रोड़े अटकाने न चला आए’’ श्यामा ने कहा।
‘‘पर तुझे थोड़ा सब्र तो रखना ही चाहिए। ये मामले इतनी ज़ल्दी के नहीं होते। अरे, शादी कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल तो है नहीं, जो आज एक जगह की, तो कल दूसरी जगह।’’ गायत्री ने बिना माँगे सलाह देने की कोशिश की।
‘‘और कित्ता देखें बहूजी, पहले ही कई बार भेज के देख लिया। पर कहते हैं न कि कुत्ते की पूँछ सीधी नहीं हो सकती। वो तो लड़की को जित्ता भुगतना था, भुगत चुकी। पहले ही पता चल जाता कि दारूबाज़ है, तो गायत्री को उसके साथ कभी नहीं ब्याती।’’
‘‘पर तुम्हारी बिरादरी में तो ज़्यादातर सभी पीने वाले लड़के ही मिलते हैं। यदि दूसरा भी दारूबाज़ निकला तो..........’’
‘‘अरे बहूजी, पीना अलग बात है, पर वो तो पी के रोज़ छोरी को पीटता था। उसे तो सबसे प्यारी दारू थी। एक-एक कर के घर का सारा सामान बेच डाला। न एक दिन भी खुद खुश रहा, न लड़की को रहने दिया। मैंने रोज़-रोज़ पिटने को थोड़े ही लड़की ब्याही थी।’’
‘‘पर सोच, यदि ये भी इसी तरह का निकला तो..........’’
‘‘तो क्या, वहाँ से भी वापस ले आऊँगी, लड़के कोई नापैद थोड़े ही हो गए हैं।’’ श्यामा ने एकदम सहज भाव से कहा।
‘‘तो क्या फिर उसकी तीसरी शादी करेगी?’’ रागिनी ने एकदम आश्चर्य में भरकर पूछा।
‘‘वो तो बखत बताएगा, पर उसे जल्लादों को तो नहीं सौंप सकती न।’’
‘‘पर सोच, समाज वाले, तेरे नाते-रिश्तेदार क्या कहेंगे ?’’
‘‘कहने वाले कुछ भी कहते रहें, मैं किसी की ज़बान तो नहीं रोक सकती, बहूजी। और फिर मुझे किसी की परवाह भी नहीं है। परवाह तो तब करती, जब ये लोग आकर मेरे दुःख में भी मेरा साथ देते। गायत्री अपने ससुराल में नरक भोगती रही, तब तो एक भी रिश्तेदार उसकी सहायता के लिए नहीं फटका। बहूजी, ये लोग तो सिर्फ़ दूसरे के फटे में टाँगें अड़ाने के लिए होते हैं, न कि साथ देने के लिए। फिर समाज की ही सोचती रहूँगी, तो लड़की के जीवन का क्या होगा? मेरे रहते तो कोई उसे पूछ नहीं रहा है, मेरे मरने के बाद भला कौन उसका भरता भरेगा?’’
‘‘फिर भी, मेरी मान तो गायत्री को एक बार और ससुराल भेज के देख ले, हो सकता है, अकेले रह जाने से उसके मरद को अकल आ गई हो और अब वो गायत्री को ढंग से रखे।’’ रागिनी ने एक बार फिर समझाने की कोशिश की।
‘‘नहीं बहूजी, मैं जान-बूझकर उसे मौत के मुँह में ढकेलना नहीं चाहती। कहीं ऐसा न हो कि मुझे भी तुम्हारे जैसे अपनी बेटी से हाथ धोना पड़ जाए।’’
श्यामा के मुख से ये सुनते ही रागिनी सुन्न पड़ गई। उसकी ज़बान को जैसे लकवा मार गया। श्यामा को जैसे ही यह अहसास हुआ कि उससे कोई गलती हो गई है, वह चुपचाप वहाँ से हटकर अपने काम में जुट गई। रागिनी को ध्यान आया कि जिस दिन वो मोना से फोन पर बातें कर रही थी, उस दिन श्यामा उसी कमरे में सफाई कर रही थी। संभवतः उसने सारी बातें सुन ली थीं ।
अचानक रागिनी के कानों में मोना के काँपते हुए शब्द एक बार फिर गूँज उठे-‘‘माँ, आप मुझे यहाँ से ले जाइए। ससुराल के सभी लोग बहुत परेशान करते हैं। सास-ससुर दहेज़ कम लाने का ताना मारते हैं, तो मोहित हर वक्त दूसरी शादी करने की धमकी देते हैं’’ मोना फोन पर सिसक पड़ी थी।
‘‘बेटा, ऐसे हिम्मत नहीं हारते हैं, जीवन में थोड़े बहुत उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं, पर वक्त के साथ सब सही हो जाता है।’’ रागिनी ने हिम्मत बँधाने की कोशिश की।
‘‘कुछ सही नहीं होगा माँ, अब तो मुझे यह भी डर सताने लगा है कि कहीं ये मुझे मार ही न डालें।’’ मोना की बिलखती आवाज़ में मृत्यु का डर था।
‘‘अरे पगली, ऐसा कुछ नहीं होगा। ये तेरे मन का वहम है और फिर मैं और तेरे पिताजी ज़ल्दी ही तेरे ससुराल आकर दामाद जी से बात करेंगे, सब ठीक हो जाएगा।’’
‘‘माँ, पत्थरों पर सिर मारने से कुछ नहीं होगा। इन लोगों के हृदय में कोई दया-ममता नहीं है। आप तो बस मुझे ले जाओ। बड़ी मुश्किल से आपको फोन करने का मौका मिला है। हो सकता है फिर ये मौका न मिले, इसलिए माँ प्लीज़, जल्दी आकर मुझे इस कैद से मुक्ति दिला दोे। फिर कभी इधर झाँकूँगी भी नहीं।’’ मोना ने अधीरता पूर्वक कहा।
‘‘बेटा, जिसे तू कैद कह रही है, वही तेरा असली घर है। हम तो तेरे घर वालों को समझाने आएँगे, न कि तुझे लेने। ये बातें तुझ जैसी समझदार लड़की को नहीं सोचनी चाहिए। इस समस्या का हल तो बातचीत से भी निकल सकता है, इस लिए लाने-ले जाने की बात तो दिमाग से एकदम निकाल दे।’’
‘‘आप कहती हैं, तो मैं ये बात दिमाग से निकाल देती हूँ, पर आप इतना ध्यान रखना कि आपको आने में कहीं देर न हो जाए।’’ उदासीन और भर्राए गले से मोना ने कहा और फोन काट दिया।
रागिनी का मन अनहोनी की सोचकर आशंकित हो उठा, उसे लगा कि काश, उसके पंख होते तो वो तुरंत मोना को यहाँ ले आती और अपने आँचल में छिपाकर उसे तसल्ली देती, ‘‘बेटी, अब तू यहाँ पूरी तरह सुरक्षित है, तुझे उन राक्षसों के पास जाने की कोई ज़रूरत नहीं है।’’
पर तुरंत मध्यमवर्गीय अवधारणा ने उसे इन ख्यालों से मुक्त कर दिया, ‘मैं भी क्या सोचने लगी? अरे, शादी के बाद तो लड़की का एकमात्र घर उसकी ससुराल ही होता है। भला शादी-शुदा लड़की को भी कोई घर में रखता है, यदि मैं उसे ले भी आऊँगी, तो समाज को क्या मुँह दिखाऊँगी, लोगों के प्रश्नों का जबाव कैसे दूँगी, सबके ताने कैसे सहूँगी? मैंने तो सबसे यही कह रखा है कि मेरी बेटी अपनी ससुराल में राज़ कर रही है।’
नहीं, उसने निश्चय कर लिया कि वह मोना के घर ही नहीं जाएगी, वर्ना तो वह उससे घर ले चलने की ज़िद करेगी। यह मोना और उसके ससुराल वालों का निजी मामला है, जो वक्त आने पर स्वतः सुलझ जाएगा। मेरेे बीच में पड़ने से तो संबंधों में और खटास आ सकती है।
पर मृत्यु की जिस संभावना को मोना ने आहट मात्र से पहचान लिया था, उसे रागिनी दस्तक देने पर भी नहीं पहचान पाई थी या मध्यमवर्गीय सोच ने उसे नज़र अंदाज़ करने पर विवश कर दिया था। तीन दिन बाद ही खबर आ गई थी कि मोना खाना बनाते वक्त गैस लीक होने से लगी आग में जलकर मर गई। रागिनी अवाक् रह गई, क्योंकि वो उसकी मृत्यु की सच्चाई जानती थी। उसने मानवता के दुश्मनों को हवालात की हवा खिलाने का निश्चय किया, पर यहाँ भी उसकी मध्यमवर्गीय मानसिकता आड़े आ गई। 'ऐसा करने से समाज में उसे कितनी ज़िल्लत झेलनी पड़ सकती है? कितने ही अवांछित प्रश्नों से सामना करना पड़ सकता है? कितनी ही शंकालु आँखों के बाणों से उसका मन घायल हो सकता है? बेटी तो हाथ से गई, अब कम-से-कम इज़्जत तो बनी रहे।'
फिर वो यह भी जानती थी कि इस मृत्यु में जितना हाथ मोना के ससुरालियों का है, उतना, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा हाथ उसका भी है। ससुराल वालों को तो वो कोशिश करके सज़ा दिला सकती थी, पर खुद को...? पर नहीं अब कोई फ़ायदा नहीं था, बात बढ़ाने में अपनी भी तो हँसी उड़ेगी, क्योंकि जितनी उँगलियाँ मोना के ससुरालियों पर उठेंगी, उससे कहीं ज़्यादा उस पर उठेंगी कि उसने जानते हुए भी मोना को उन दहेज़ के भूखे भेड़ियों से क्यों नहीं बचाया?
अचानक रसोई से ‘झन्न’ की आवाज़ गूँजी, जिसने रागिनी की तंद्रा को भंग कर दिया। शायद श्यामा के हाथ से कोई बरतन नीचे गिर गया था। रागिनी ने ठंडी आह भरके भीगी पलकों को अपने पल्लू से पोंछा और सोचने लगी, ‘अभी जब कुछ दिनों पहले पड़ोस में रहने वाले करोड़पति शर्माजी की बेटी ने अपने पति से तलाक लेकर धूमधाम से दूसरी शादी की, तो समाज के एक भी आदमी के मुख से कुछ नहीं फूटा था, बल्कि सभी उस शादी में शरीक हुए थे और उनकी बेटी के इस प्रगतिवादी कदम की सराहना कर रहे थे। और अब ये श्यामा अपनी बेटी को दूसरी बार ब्याहने जा रही है। क्या समाज के नियम कायदे हम मध्यमवर्गीय लोगों के लिए ही हैं? इन कायदों को निभाने का बीड़ा हमने ही ले रखा है? न उच्चवर्ग को इनकी परवाह है, न निम्नवर्ग को। इनकी आँच में एक मध्यमवर्ग का प्राणी ही झुलस रहा है। काश, उस दिन मैंने भी समाज के खोखले और दिखावटी रीति-रिवाजों से बाहर आने की हिम्मत की होती तो आज मेरी मोना मेरे पास होती-जीवित, सशरीर।'
एकाएक उसने मन-ही-मन निश्चय किया, ‘मैं अपनी बेटी को तो लौटा नहीं सकती, पर उसे न्याय तो दिला ही सकती हूँ। मैं आज ही पुलिस में उसके ससुरालियों के खिलाफ़ रिपोर्ट दर्ज़ करवाती हूँ। इसके लिए अब मुझे चाहे समाज से टक्कर लेनी पड़े या उसके ससुरालियों से। पर अब मैं देखती हूँ कि मोहित कैसे दूसरी शादी करता है और उसके हत्यारे माँ-बाप कैसे चैन की नींद सो पाते हैं।’
पर मृत्यु की जिस संभावना को मोना ने आहट मात्र से पहचान लिया था, उसे रागिनी दस्तक देने पर भी नहीं पहचान पाई थी या मध्यमवर्गीय सोच ने उसे नज़र अंदाज़ करने पर विवश कर दिया था। तीन दिन बाद ही खबर आ गई थी कि मोना खाना बनाते वक्त गैस लीक होने से लगी आग में जलकर मर गई। रागिनी अवाक् रह गई, क्योंकि वो उसकी मृत्यु की सच्चाई जानती थी। उसने मानवता के दुश्मनों को हवालात की हवा खिलाने का निश्चय किया, पर यहाँ भी उसकी मध्यमवर्गीय मानसिकता आड़े आ गई। 'ऐसा करने से समाज में उसे कितनी ज़िल्लत झेलनी पड़ सकती है? कितने ही अवांछित प्रश्नों से सामना करना पड़ सकता है? कितनी ही शंकालु आँखों के बाणों से उसका मन घायल हो सकता है? बेटी तो हाथ से गई, अब कम-से-कम इज़्जत तो बनी रहे।'
फिर वो यह भी जानती थी कि इस मृत्यु में जितना हाथ मोना के ससुरालियों का है, उतना, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा हाथ उसका भी है। ससुराल वालों को तो वो कोशिश करके सज़ा दिला सकती थी, पर खुद को...? पर नहीं अब कोई फ़ायदा नहीं था, बात बढ़ाने में अपनी भी तो हँसी उड़ेगी, क्योंकि जितनी उँगलियाँ मोना के ससुरालियों पर उठेंगी, उससे कहीं ज़्यादा उस पर उठेंगी कि उसने जानते हुए भी मोना को उन दहेज़ के भूखे भेड़ियों से क्यों नहीं बचाया?
अचानक रसोई से ‘झन्न’ की आवाज़ गूँजी, जिसने रागिनी की तंद्रा को भंग कर दिया। शायद श्यामा के हाथ से कोई बरतन नीचे गिर गया था। रागिनी ने ठंडी आह भरके भीगी पलकों को अपने पल्लू से पोंछा और सोचने लगी, ‘अभी जब कुछ दिनों पहले पड़ोस में रहने वाले करोड़पति शर्माजी की बेटी ने अपने पति से तलाक लेकर धूमधाम से दूसरी शादी की, तो समाज के एक भी आदमी के मुख से कुछ नहीं फूटा था, बल्कि सभी उस शादी में शरीक हुए थे और उनकी बेटी के इस प्रगतिवादी कदम की सराहना कर रहे थे। और अब ये श्यामा अपनी बेटी को दूसरी बार ब्याहने जा रही है। क्या समाज के नियम कायदे हम मध्यमवर्गीय लोगों के लिए ही हैं? इन कायदों को निभाने का बीड़ा हमने ही ले रखा है? न उच्चवर्ग को इनकी परवाह है, न निम्नवर्ग को। इनकी आँच में एक मध्यमवर्ग का प्राणी ही झुलस रहा है। काश, उस दिन मैंने भी समाज के खोखले और दिखावटी रीति-रिवाजों से बाहर आने की हिम्मत की होती तो आज मेरी मोना मेरे पास होती-जीवित, सशरीर।'
एकाएक उसने मन-ही-मन निश्चय किया, ‘मैं अपनी बेटी को तो लौटा नहीं सकती, पर उसे न्याय तो दिला ही सकती हूँ। मैं आज ही पुलिस में उसके ससुरालियों के खिलाफ़ रिपोर्ट दर्ज़ करवाती हूँ। इसके लिए अब मुझे चाहे समाज से टक्कर लेनी पड़े या उसके ससुरालियों से। पर अब मैं देखती हूँ कि मोहित कैसे दूसरी शादी करता है और उसके हत्यारे माँ-बाप कैसे चैन की नींद सो पाते हैं।’
निम्नवर्गीय अनपढ़ श्यामा ने अनजाने में ही उसे आज मध्यमवर्गीय सोच के जाल से खींचकर बाहर निकाल दिया था।
‘‘श्यामा जाते समय अपनी बेटी की शादी के लिए शगुन का सामान ले जाना।’’ रागिनी ने श्यामा को आवाज़ लगाते हुए कहा और उठकर उसकी बेटी के लिए अलमारी से साड़ी, बिछुए निकालने लगी। आज़ वह अपनी सोच को श्यामा की सोच के धरातल पर लाकर अपने को हलका महसूस कर रही थी।
‘‘श्यामा जाते समय अपनी बेटी की शादी के लिए शगुन का सामान ले जाना।’’ रागिनी ने श्यामा को आवाज़ लगाते हुए कहा और उठकर उसकी बेटी के लिए अलमारी से साड़ी, बिछुए निकालने लगी। आज़ वह अपनी सोच को श्यामा की सोच के धरातल पर लाकर अपने को हलका महसूस कर रही थी।
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