क्या हम पूर्ण स्वतंत्र हैं?
15 अगस्त सन् 1947 का दिन हमारे भारतीय इतिहास में अत्यंत गौरवपूर्ण दिन है। हो ही क्यों न, इस दिन हमें अंग्रेज़ों से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। ऐसी स्वतंत्रता, जिसे पाने के लिए हज़ारों देशभक्तों ने अपनी जान न्योछावर कर दी थी।‘स्वतंत्रता’, ‘आज़ादी’, ‘स्वाधीनता’-ये सभी एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं। सभी का एक ही अर्थ है-बंधन मुक्त होना, अपनी इच्छा से जीवन जीना। इन शब्दों की मिठास वास्तव में वर्णनातीत है। ये शब्द अनगिनत अहसासों से भरे हैं। ‘आज़ादी’ शब्द जे़हन में आते ही ऐसा लगता है मानो हमारे पंख उग आए हों और हम नीलगगन में दूर कहीं उड़ने को तैयार हों। आज़ादी भला किसे नहीं अच्छी लगती? सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं, वरन् छोटे से बड़े सभी पशु-पक्षी, पेड़ का हर पत्ता, सागर की प्रत्येक लहर, नदी की हर उछाल-सभी जीवित प्राणी आज़ाद रहना चाहते हैं। बंधन में बँधना भला कौन चाहता है? पशु-पक्षियों को पिंजरे में बंद करके उन्हें समस्त सुविधाएँ, जैसे, समय-समय पर भोजन-पानी आदि उपलब्ध कराते रहो, पर फिर भी वे अवसर पाते ही पिंजरे से निकल भागने को आतुर रहते हैं।
मनुष्य तो एक चेतनाशील प्राणी है। उसे तो आज़ादी का अहसास अन्य प्राणियों से अधिक होता होगा। वो तो आज़ादी का अर्थ एवं उसका महत्त्व अधिक गहराई से जानता होगा। शायद इसीलिए तो हमारे पूर्वजों ने आज़ादी को अपने प्राणों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना और उसे प्राप्त करने के लिए अपने प्राणों की आहुति दीं। अपने पूर्वजों की बदौलत ही आज हम पूर्ण स्वतंत्र कहे जाते हैं। पर, अब प्रश्न उठता है कि हम पूर्ण स्वतंत्र सिर्फ़ कहे जाते हैं या वास्तव में हम पूर्ण स्वतंत्र हैं?
आखिर पूर्ण स्वतंत्रता से आशय क्या है? क्या हम इसको इस रूप में देखते हैं कि हमारी सरकार ब्रिटिश नहीं है, यहाँ अब अंग्रेज़ों का हुक्म नहीं चलता, उनके द्वारा किया शोषण नहीं भुगतना पड़ता? यदि यही आज़ादी का मायना है, तो हम पूर्ण स्वतंत्र हैं। पर नहीं, यह तो आज़ादी का एक संकुचित रूप है। मात्र शारीरिक तौर पर ही नहीं, बल्कि मानसिक एवं भावनात्मक रूप से भी आज़ाद होना ही वास्तव में पूर्ण आज़ादी है।
अब हम ज़रा यह सोचकर देखते हैं कि क्या हम सब स्वतंत्र हैं? सबसे पहले हम मात्र शारीरिक रूप से भी देखें तो बड़े ही चैंकाने वाले आँकड़े सामने आते हैं। आज भी हमारे देश में अनगिनत लोग बंधुआ मज़दूर बने हुए हैं। और कइयों के परिवार में तो ये सिलसिला कई-कई पीढ़ियों से, शायद आज़ादी से भी पहले से चल रहा है। हालांकि बंधुआ मज़दूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976 को लागू करके बंधुआ मजदूरी प्रणाली को 25 अक्टूबर 1975 से संपूर्ण देश से खत्म कर दिया गया। इस अधिनियम के ज़रिए बंधुआ मज़दूरों को गुलामी से मुक्त करके उनके कर्ज़ को भी समाप्त किया गया। साथ ही गुलामी की प्रथा को कानून द्वारा एक संज्ञेय दंडनीय अपराध बना दिया गया। पर, अब भी बहुत-से लोग गुपचुप तरीके से, अनेक रूपों में बंधुआ मज़दूरी का जीवन जीने को विवश हैं।
उनके लिए क्या परिवर्तन हुआ? शायद यही कि पहले वे गुलाम भारत में बंधुआ मज़दूर थे और अब वे स्वतंत्र भारत में अपने ही लोगों के हाथों की कठपुतलियाँ बने हुए हैं। कर्ज़ के बोझ के तले ये परिवार कितना मानसिक-शारीरिक उत्पीड़न झेलने को विवश हैं। भला इन्हें कौन आज़ाद कहने की हिमाकत कर सकता है?
आज हमारे चारों तरफ़ अनेक छोटे-छोटे बच्चे बाल मज़दूरी करते नज़र आते हैं। अनगिनत महिलाएँ कुप्रथाओं का शिकार होकर दबा-घुटा जीवन जीने को विवश हैं। आज भी जादू-टोने-टोटके-चुड़ैल आदि अंधविश्वासों के चलते अनेक महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। आज का पढ़ा-लिखा, सभ्य कहा जाने वाला समाज भी जाति-धर्म-संप्रदाय से ऊपर नहीं उठ पाया है। हम सभी लोग कहीं-न-कहीं मानसिक गुलामी के शिकार ही तो हैं। यदि हम स्वयं को इन सबसे ऊपर उठा मान भी लें तो हम भावात्मक गुलामी के शिकार तो अवश्य ही हैं। तभी तो कोई भी हमें तुरंत गुस्सा दिला देता है, या उकसा देता है। और कुछ नहीं तो हम सभी परिस्थितियों के दास ही बने हुए हैं।
आखिर हम पूर्ण स्वतंत्र कब और कैसे कहलाएँगे? शायद पूर्ण स्वतंत्र होने में अभी कुछ और सदियाँ लगेंगी। शायद इसलिए, क्योंकि आज हम किसी बाहरी व्यक्ति या शक्ति के अधीन नहीं हैं, बल्कि आज हमें अपने ही लोगों ने, अपनी ही सोच ने बंधक बनाया हुआ है। कहीं कोई अपने बाॅस के बंधन में है, कोई बाल-मज़दूर है, कोई बंधुआ मज़दूर है, कोई रीति-रिवाज़ों का गुलाम है, कोई भावात्मक रूप से गुलाम है-इन सब में एक बात तो काॅमन है कि इनमें से कोई भी अंग्रेज़ों का गुलाम नहीं है। ये सब अपने ही लोगों, अपनी ही सोच के हाथों गुलामी का दंश झेल रहे हैं।
अब सवाल खड़ा होता है कि हम इस गुलामी से कैसे बाहर निकलें?
यह सत्य है कि मानसिक गुलामी की शुरुआत कहीं-न-कहीं शारीरिक गुलामी से होती है या यों कहें कि शारीरिक गुलामी की शुरुआत मानसिक गुलामी से होती है। दरअसल ये दोनों ही बहुत हद तक एक-दूसरे के पूरक हैं। यह भी सत्य है कि शोषक वर्ग को मिटाए बिना शोषण नहीं मिट सकता। यदि हमें शोषण मिटाना है तो पहले शोषक वर्ग को मिटाना होगा। ऐसा करने से शोषण स्वतः समाप्त हो जाएगा, क्योंकि ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’। शोषक वर्ग को मिटाने से तात्पर्य यह नहीं कि हमें तथाकथित भारतीय अंग्रेज़ों? को देश से भगाना होगा, बल्कि उनकी मानसिकता को बदलना होगा। ये मानसिकता कहीं-न-कहीं गुलामी की मानसिकता है, जो उन्हें अंग्रेज़ों से विरासत में मिली है। आज अंग्रेज़ चले गए, पर कई रूपों में हमें मानसिक गुलामी दे गए। हमारी विचारधारा को गुलाम बना गए। आवश्यकता है इस मानसिक गुलामी से पूरे देश को आज़ाद होने की, तभी हम सही अर्थों में पूर्ण स्वतंत्रता दिवस मना पायेंगे।
आज हमें स्वतंत्र होने के लिए पुनः संघर्ष करना होगा। क्योंकि आज देश आज़ाद है, पर हम गुलाम हैं। पर, ये लड़ाई अंग्रेज़ों से नहीं, बल्कि उनके द्वारा थोपी मानसिकता से, अपनी संकुचित विचारधारा से लड़नी होगी। और ये तो सर्वविदित है कि किसी प्राणी से लड़ने से कहीं ज़्यादा कठिन है-किसी विचारधारा से लड़ना। पर, यदि मनुष्य ठान ले तो अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति से क्या नहीं कर सकता? जिस तरह हमने अंग्रेज़ों को देश से भगाया, उसी तरह एक-न-एक दिन गुलाम बनाने वालेे अन्य घटकों को भी अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकेंगे।
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