कबीर
के दोहों को ‘साखी’ क्यों कहा जाता है
कबीर
दास जी एक संत
थे। वे एक स्थान
पर न रहकर अन्य
संतों की तरह ही
जगह-जगह भ्रमण करते रहते थे। उनकी इस घुमक्कड़ी ने
उन्हें अनेक भाषाओं एवं लोगों से तो परिचित
कराया ही, साथ ही उनके अनुभवों
का दायरा भी विशाल बनाया।
यही कारण है कि अनपढ़
होते हुए भी कबीरदास जी
का अनुभवजन्य ज्ञान इतना विस्तृत था, जिसने मोटी-मोटी पोथी पढ़े हुए तथाकथित ज्ञानियों को भी चमत्कृत
कर दिया। कबीर ने अपनी निरक्षरता
को इंगित करते हुए लिखा है-
‘‘मसि
कागद छुवो नहिं, कलम गहि नहिं हाथ।’’
चारिक
जुग को महातम, मुखहिं
जनाई बात।।’’
अर्थात्
न तो मैंने कभी
कागज और स्याही का
ही स्पर्श किया और न ही
कभी लेखनी हाथ में ली। चारों युगों का महात्म्य केवल
अपने मुँह द्वारा जता दिया है।
संत
कबीर अपने समकालीन कवियों में सबसे अधिक प्रतिभाशाली कवि माने जाते ह़ैं। अनपढ़ होते हुए भी वे अपने
समाज की समस्याओं, तत्कालीन
परिस्थितियों, पाखंड, कुरीतियों आदि से अनभिज्ञ नहीं
थे, बल्कि उन पर करारी
व्यंग्यात्मक चोट करते रहते थे। वे विद्रोही, समाज-सुधारक एवं प्रगतिशील दार्शनिक थे। उनका उद्देश्य महान था, वे कुरीतियाँ तथा
विषमताएँ दूर कर समाज सुधार
करना चाहते थे। आज जितनी भी
समाज-सुधार या सामाजिक क्रांति
की बातें होती हैं, वे कहीं-न-कहीं कबीर का उच्छिष्ट (जूठा)
ही लगता है, क्योंकि समाज की उन कमियों
को कबीर बहुत पहले ही अपनी साखियों
का विषय बना चुके हैं। कबीर की साखियाँ न
सिर्फ़ उनके अपने समय में उपयोगी थीं, बल्कि आज के समाज
पर भी वो पूरी
तरह चरितार्थ होती हैं। उनकी साखियाँ हर काल की
पीढ़ी के लिए प्रेरणा
एवं पथ-प्रदर्शन का
कार्य करती रही हैं और आगे भी
करती रहेंगी। यही कारण है कि कबीर
को कालजयी कवि की उपाधि से
सम्मानित किया जाता रहा है।
अब
प्रश्न आता है कि कबीर
के दोहों को ‘साखी’ क्यों कहा जाता है? इसके लिए हमें पहले ‘साखी’शब्द का अर्थ जानना
होगा। ‘साखी’शब्द तद्भव शब्द है, जिसका तत्सम रूप है-साक्षी। ‘साक्षी’का
अर्थ होता है-प्रत्यक्ष गवाह।
अर्थात् कबीर ने अपने दोहों
में अनुभूत विषयों को ही लिया
है। उन्होंने जो कुछ भी
स्वयं भोगा या आँखों से
देखा अर्थात् जिसके भी वह प्रत्यक्ष
गवाह या साक्षी बने,
उसी बात को उन्होंने अपने
दोहों के माध्यम से
समाज के सामने रखा।
उनका सारा साहित्य यथार्थ पर ही टिका
है। उन्होंने स्वयं ही कहा है-
‘‘तू
कहता कागद की लेखी, मैं
कहता आँखन की देखी।’’
यही
कारण है कि उन्होंने
शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभवजन्य
ज्ञान को महत्त्व दिया
है। उनका अनुभव यही कहता है कि मोटी-मोटी किताबें, पोथियाँ या ग्रंथ पढ़ने
के बाद भी यदि व्यक्ति
के अंदर प्रेम एवं मानवता के गुण नहीं
समाते हैं तो उसका पोथियाँ
पढ़ना निष्फल है, ऐसे व्यक्ति से अधिक ज्ञेष्ठ
तो वह व्यक्ति है
जिसने भले ही अक्षर ज्ञान
न हासिल किया हो, पर जिसके हृदय
में प्राणी-मात्र के लिए प्रेम
की गंगा बहती हो-
‘‘पोथी
पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित
भया न कोय।
ढाई
आखर प्रेम का, पढ़ै सु पंडित होय।।’’
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