कबीर दास जी त्रिकालदर्शी क्रांतिकारी कवि थे। यही कारण है कि निरक्षर होते हुए भी कबीर आज भी साक्षर लोगों के द्वारा पढ़े जाते हैं। उनके साहित्य पर लगातार शोध कार्य होते रहते हैं। जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी अन्य कवियों की भाषा में नहीं है। यह परम आश्चर्य की बात है कि जहाँ आज के बहुत-से पढ़े-लिखे कवियों को भी भाषा का सही-सही प्रयोग करना नहीं आता है, अनुभूति और अभिव्यक्ति में सामंजस्य बिठाना नहीं आता है, वहीं अनपढ़ कबीर को सुप्रसिद्ध आलोचक पं0 हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘भाषा का डिक्टेटर’ कहकर सम्मानित किया। कहा जाता है कि भाषा पर कबीर को पूर्ण अधिकार प्राप्त था। भाषा कबीर के भावों के पीछे-पीछे चलती थी अर्थात् उनकी गुलाम थी। भाषा उनके सामने लाचार-सी नज़र आती थी। पं0 हजारी प्रसाद द्विवेदी जी लिखते हैं-‘‘भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी वे़ डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया। बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।’’
पं0 हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी कबीर की भाषा के विषय में लिखते हैं-‘‘कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को ’कवि’ कहने में संतोष पाता है।’’
कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी भी कहा गया। जिस प्रकार साधु लगातार एक-स्थान से दूसरे स्थान को भ्रमण करते रहते हैं, उसी प्रकार संत कबीर भी भारत के अनेक स्थलों पर भ्रमण करते रहे, जिसके कारण उनकी भाषा में उन स्थानों की भाषा का भी पूरा प्रभाव पड़ा और अनेक स्थानों की भाषाओं के शब्दों ने उनकी भाषा को और भी समृद्ध बना दिया। उनकी भाषा में पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी एवं ब्रजभाषा के साथ-साथ अरबी-फ़ारसी आदि के शब्द भी बहुतायत में मिलते हैं। इन भाषाओं के मेल के कारण इनकी भाषा ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहलाई। जिस तरह खिचड़ी सुपाच्य होती है, उसी तरह इनकी भाषा भी अपनी सरलता एवं सहजता के कारण लोगों के दिल में उतरती चली गई। गूढ़ विषयों को भी उन्होंने सरलता से जन-मानस के हृदय तक सफलता से पहुँचाया।
पं0 हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी कबीर की भाषा के विषय में लिखते हैं-‘‘कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को ’कवि’ कहने में संतोष पाता है।’’
कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी भी कहा गया। जिस प्रकार साधु लगातार एक-स्थान से दूसरे स्थान को भ्रमण करते रहते हैं, उसी प्रकार संत कबीर भी भारत के अनेक स्थलों पर भ्रमण करते रहे, जिसके कारण उनकी भाषा में उन स्थानों की भाषा का भी पूरा प्रभाव पड़ा और अनेक स्थानों की भाषाओं के शब्दों ने उनकी भाषा को और भी समृद्ध बना दिया। उनकी भाषा में पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी एवं ब्रजभाषा के साथ-साथ अरबी-फ़ारसी आदि के शब्द भी बहुतायत में मिलते हैं। इन भाषाओं के मेल के कारण इनकी भाषा ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहलाई। जिस तरह खिचड़ी सुपाच्य होती है, उसी तरह इनकी भाषा भी अपनी सरलता एवं सहजता के कारण लोगों के दिल में उतरती चली गई। गूढ़ विषयों को भी उन्होंने सरलता से जन-मानस के हृदय तक सफलता से पहुँचाया।
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