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रक्षाबंधन Hindi article on Raksha Bandhan


रक्षाबंधन

रक्षाबंधन प्रति वर्ष सावन (श्रावण) मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसी कारण इसे ‘श्रावणी’ भी कहा जाता है।

पुराने ज़माने में रक्षाबंधन को विद्वानों का त्योहार माना जाता था। वे लोग इस दिन अपना पुराना जनेऊ उतारकर नया जनेऊ पहने लेते थे। यह कार्य गाँव के बाहर किसी नदी या तालाब आदि के किनारे किया जाता था। पंडित और पुरोहित मंत्र पढ़कर इसे पूरा कराते थे। इसे ‘उपाकर्म संस्कार’ भी कहते थे। देश के कुछ भागों में आज भी यह प्रथा प्रचलित है। 

प्राचीनकाल में श्रावणी को गुरुकुलों में बहुत उत्साह से मनाया जाता था। शिक्षा पूरी कर लेने वाले विद्यार्थी इस दिन दीक्षा-संस्कार में भाग लेते थे। इस कार्यक्रम को समावर्तन समारोह या संस्कार कहते थे। इस कार्यक्रम में वे शिष्य भी भाग लेते थे, जिनकी शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई होती थी।

रक्षाबंधन को राखी का त्योहार भी कहा जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों के हाथों में राखी बाँधती हैं। रक्षाबंधन से कई दिन पहले ही बाज़ारों में दुकानें रंग-बिरंगी राखियों से सज जाती हैं। बहनें अपने भाइयों की कलाई को सजाने के लिए एक-से-एक सुंदर राखियाँ खरीदती हैं। 

रक्षाबंधन के विषय में एक कथा प्रसिद्ध है। एक बार राक्षसों और देवताओं में भयानक लड़ाई हुई। देवताओं पर राक्षस भारी पड़ रहे थे। इससे देवताओं के राजा इंद्र को बहुत चिंता हुई। उन्हें चिंतित देखकर इंद्राणी ने उनके लिए एक सुंदर-सा रक्षा-कवच तैयार करके इंद्र के हाथ में बाँध दिया। यह संयोग ही था कि उस दिन सावन की पूर्णिमा थी। अगले दिन युद्ध में इंद्र जीत गए। तभी से इसका महत्त्व माना जाने लगा है।

इतिहास में कई ऐसी कहानियाँ मिलती हैं जब नारियों ने शत्रुओं को राखी भेजकर या बाँधकर, उन्हें अपना भाई बताते हुए अपने सम्मान की रक्षा की। इस संदर्भ में रानी कर्णवती और राजा हुमायूँ की कहानी बेहद प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि चित्तौड़ की रानी कर्णवती ने गुजरात के शासक बहादुरशाह ज़फर से अपने राज्य तथा अपने सम्मान की रक्षा के लिए दिल्ली के मुगल बादशाह हुमायँू को राखी भेजकर सहायता माँगी थी। हुमायूँ बहन की रक्षा के लिए चल पड़े थे। इस कथा से यह पता चलता है कि राखी का प्रचलन तथा उसकी महत्ता तब भी रही होगी।

आज के रक्षाबंधन के मूल में यही कथा है, अंतर केवल इतना है कि आजकल बहनें अपने भाई के राखी बाँधती हैं। वे पूजा-अर्चना करने के बाद अपने भाइयों की आरती करती हैं, उन्हें तिलक लगाती हैं तथा उनके राखी बाँधती हैं। बदले में भाई उन्हें विभिन्न प्रकार के उपहार भेंट करते हैं। दोनों ही संदर्भों में मूल भावना रक्षा की है।


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