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प्रकृति प्रेमी: भगवान श्रीकृष्ण



प्रकृति प्रेमी: भगवान श्रीकृष्ण

यूँ तो हम भगवान श्री कृष्ण के अनेक रूपों एवं नामों से परिचित हैं, लेकिन उनका एक अन्य रूप भी है, जो है- प्रकृति प्रेमी का। जी हाँ, चाहे कालिया नाग मर्दन हो चाहे गोवर्धन पर्वत उठाना हो, चाहे गायों को चराना हो चाहे कदंब के पेड़ के नीचे खड़े होकर वंशी बजाना हो-ये सारे कार्य भी प्रकृति से जुड़े हुए हैं। मेरा तो अपना मत यही है कि इस धरती पर जितने भी अवतार या सिद्ध पुरुष हुए हैं, उनमें से सर्वाधिक प्रकृति प्रेमी, प्रकृति हितैषी, प्रकृति संरक्षक यदि कोई हुआ है तो वह हैं कर्म योग का पाठ पढ़ाने वाले नटखट, माखनचोर, नटवरलाल, कृष्ण-कन्हैया। आप कहेंगे कि सर्वाधिक प्रकृति प्रेमी भगवान श्री कृष्ण ही क्यों हैं? तो इसका उत्तर है-इसलिए, क्योंकि यदि हम संपूर्णता से अध्ययन करें तो पाएँगे कि भगवान श्री कृष्ण का अधिकांश जीवन प्रकृति के सामीप्य में ही व्यतीत हुआ है। जैसे कि जन्म लेते ही उन्होंने कालिंदी यानी यमुना के उफनते जल को अपने नन्हे पैरों के स्पर्श मात्र से शांत कर दिया था। भगवान श्रीकृष्ण यमुना में नहाया करते थे और वृंदावन की कुंज गलियों में विहार किया करते थे। वृंदावन के बाग-बगीचों में गोपियों के साथ रास रचाया करते थे। इतिहास में हम देखते हैं कि राजा-महाराजा अपने सिर पर रत्नों से जड़े भारी-भरकम मुकुट धारण करते थे, वहीं प्रकृति-प्रेमी श्रीकृष्ण को मुकुट के रूप में भाया-प्रकृति की एक सुंदर देन और हमारे देश के राष्ट्रीय पक्षी ‘मोर’ का पंख। गले में सोने-चाँदी के आभूषणों की बजाय उन्हें लुभाते थे वैजयंती पुष्पों से बनी मालाएँँ और बाजूबंद। वे मोर का पंख धारण करके कदम के वृक्ष के नीचे खड़े होकर जिस बाँसुरी को बजाया करते थे, वह भी लकड़ी से ही बनी होती थी। इसके अलावा हम देखते हैं भगवान श्रीकृष्ण गायों को चुराया करते थे। उनका खिलौना भी ऐसा-वैसा नहीं था, बल्कि उन्होंने तो यह कहकर माँ यशोदा को ही सोच में डाल दिया-

‘‘मैया, मैं तो चंद्र-खिलौना लैहो।’

देखिए, चाहे हम बात करें गायों की, चाहे बात करें फूलों की, चाहे बात करें कुंज गलियों की, चाहे बात करें कदम की डालों की, चाहे बात करें रस से भीनी बाँसुरी की, चाहे बात करें यमुना नदी की-हर चीज आप देखिए प्रकृति की ही है। इसके अलावा हम देखते हैं कि उनका खान-पान भी प्राकृतिक ही था। उन्हें माखन, दूध, दही अधिक प्रिय थे। दो मुट्ठी चावल के लिए तो उन्होंने दो लोक अपने मित्र सुदामा के नाम कर दिए थे।

अतः हम कह सकते हैं कि गिरधर पर्वत को उठाने वाले भगवान श्री कृष्ण प्रकृति की गोद में पले, बढ़े और प्रकृति से उनका अटूट नाता रहा।




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