हर घर तिरंगा
रीता ने तेजी से रिक्शे की ओर कदम बढ़ाए। उसे अपना एक परिचित रिक्शे वाला दिखाई दिया। रिक्शे वाला भी उसे देखकर रिक्शे से उतर गया। वह बिना मोल-भाव किए रिक्शे में बैठ गई। उसे स्कूल में नौकरी करते हुए लगभग छह साल हो गए थे। वह प्रतिदिन रिक्शे से ही आती-जाती थी। अतः अपने घर के पास वाले चौराहे पर खड़े कुछ रिक्शे वालों को वह पहचानने लगी थी। उनसे उसे भाड़ा तय नहीं करना पड़ता था। प्रतिदिन 20 रुपए एक तरफ का किराया लगता था। छह साल पहले दस रुपए से शुरुआत हुई थी, फिर पंद्रह रुपए हुए और अब लगभग एक साल से बीस रुपए भाड़ा हो गया था। कभी-कभी वह सोचती भी थी कि सब ओर इतनी तेजी से महँगाई बढ़ी है, पर रिक्शों पर इसका उतना असर नहीं आया। बल्कि इन टिर्रियों ने तो इन रिक्शे वालों की कीमत घटा और दी है।
आज पंद्रह अगस्त है। उसे इस अवसर पर एक भाषण भी देना था। वह मन-ही-मन अपने भाषण को दोहराने लगी। तभी रास्ते में उसकी नजर झंडे की दुकान पर पड़ी। उसने सोचा यदि एक हाथ में तिरंगा झंडा पकड़कर भाषण बोलूँगी, तो दिखने में और ज्यादा अच्छा लगेगा। उसने रिक्शावाले से कहा, ‘भैया, दो मिनट रुको, मुझे झंडे खरीदने हैं।”
रीता रिक्शे से उतरकर झंडे पसंद करने लगी। उसने हाथ में पहनने के लिए एक तिरंगा बैंड और एक छोटी झंडी पसंद की। हिसाब करने के लिए अभी उसने सौ रुपए का नोट आगे बढ़ाया ही था कि एकाएक रिक्शेवाला बोल पड़ा, ‘‘बहन जी, दो झंडियाँ मुझे भी दिलवा दो। मैं अपने रिक्शे में लगाऊँगा।”
रीता ने कहा, ‘‘ठीक है मैं तुम्हें दिलवा देती हूँ, पर दो झंडियाँ बीस रुपए की हैं, ये बीस रुपए तुम्हारे भाड़े के पैसों में बराबर हो जायेंगे।”।
रिक्शावाला कुछ रुआंसा होकर बोला, ‘‘अरे बहन जी, कैसी बातें कर रही हो। आपसे ही तो मेरी आज की बोहनी शुरू होनी है। और फिर आप तो इतने बड़े स्कूल में मास्टरनी हैं, आपको बीस रुपए में क्या फर्क पड़ेगा।”
‘‘वाह! फर्क कैसे नहीं पड़ेगा, मैं कोई इधर-उधर लुटाने के लिए पैसे थोड़े ही कमा रही हूँ।”
‘‘ठीक है, आप मुझे भाड़े के पैसे मत देना, आज भले ही मैं एक वक्त का खाना न खाऊँ, पर आज मेरे रिक्शे पर भी तिरंगा जरूर लहराएगा। सारा देश आज आजादी का जश्न मना रहा है, तो मैं पीछे क्यों रहूँ।” इस बार रिक्शे वाले की आवाज में दृढ़ता झलक रही थी।
झंडे वाले की दुकान में उसकी बारह-तेरह साल की लड़की भी थी, जो उसके काम में हाथ बँटा रही थी, बोली, ‘‘बापू, आपने मुझसे कहा था कि आज 15 अगस्त है। दुकान पर झंडे खरीदने वालों की बहुत भीड़ रहेगी, इसलिए मेरा हाथ बँटाने के लिए तू भी मेरे साथ दुकान पर चल, मैं तुझे मेहनत के सौ रुपए दूँगा।”
‘‘हाँ, कहा तो था, पर अभी....... रीता के हिसाब के लिए पैसे गिनते हुए पिता ने थोड़े अनमने भाव से कहा। ‘‘बापू, आप मुझे सौ में से बीस रुपए काटकर दे देना। मेरी तरफ से उन बीस रुपयों की दो झंडियाँ इन रिक्शे वाले अंकल को दे दो।’’
दुकानदार ने गर्व से बेटी की तरफ देखा और फिर हिसाब के बाकी रुपयों में बीस रुपए और बढ़ाकर रीता के हाथ में थमा दिए। दुकानदार की बेटी ने दो झंडियाँ उठाकर रिक्शे वाले की ओर बढ़ा दीं।
रिक्शे वाले की आँखों में कृतज्ञता थी, पिता की आँखों में गर्व था, वहाँ खड़े ग्राहकों की आँखों में चमक थी, तो वहीं नन्ही बच्ची की आँखों में संतुष्टि का भाव झलक रहा था। बस उस समय एक रीता ही ऐसी थी, जिसकी आँखों में हीनता का भाव था, इस समय वह अपनी ही नजरों में नीची हो रही थी। और जब झंडा लगाते हुए रिक्शे वाले ने तिरछी नजरों से रीता की ओर देखा, तो वह शर्म से जमीन में ही गड़ गई।
चाहते हुए भी उसकी यह कहने की हिम्मत नहीं हो पाई कि इन झंडियों के पैसे मैं ही दे दूँगी। मरे हुए हाथों से उसने दुकानदार द्वारा लौटाए पैसों को पकड़ा और पर्स में रखने लगी। भारी कदमों से चलती हुई वह रिक्शे में बैठ गई। रेडियो पर स्वर गूँज रहा था-
‘‘घर-घर तिरंगा, हर घर तिरंगा।’’
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