परोपकार (परहित सरिस धर्म नहिं भाई)
'परोपकार' शब्द 'पर+उपकार' से बना है। 'पर' का अर्थ है 'दूसरा' और 'उपकार' का अर्थ है -भलाई। अर्थात 'दूसरों पर उपकार करना या दूसरों की भलाई करना ही परोपकार है।
अब प्रश्न होता है-दूसरे कौन? हम सभी अपने परिवार का ध्यान रखते हैं, उसके सुख-दुख में भागीदार होते हैं, तो कहीं-न-कहीं हम परिवार का भला ही तो कर रहे हैं। जी नहीं, परिवार का ध्यान रखना किसी भी तरह परोपकार में नहीं गिना जाएगा। यह तो बहुत संकीर्ण दायरा है। भारतीय संस्कृति या तुलसीदास द्वारा रचित पंक्तियों में परोपकार या परहित को बहुत व्यापक अर्थ में ग्रहण किया गया है। परोपकार का अर्थ है - प्राणी मात्र का भला करना। इसके अंतर्गत हर जीवित प्राणी, जैसे - मानव, पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, यहाँ तक कि पेड़-पौधे तक आ जाते हैं।
भारतीय
संस्कृति हमेशा क्षुद्रता या संकीर्णता को त्यागकर व्यापकता को अपनाने पर बल देती है।
यही कारण है कि अपने परिवार के भरण-पोषण को परोपकार की श्रेणी में न रखकर कर्तव्य निर्वाह
की श्रेणी में रखा जाता है। परोपकार के अंतर्गत तो मनुष्य अपने परिवार से बाहर निकलकर
पास-पड़ोस, समाज, राष्ट्र की सीमाओं को भी लाँघता हुआ पूरे संसार के प्राणी मात्र के
भले के लिए सोचता है। भारतीय संस्कृति की परिकल्पना ही 'वसुधैव कुटुंबकम् ' की है।
यही कारण है कि हम सारी धरती को ही अपना परिवार मानते हैं और सभी के कल्याण की प्रार्थना
करते हैं-
'सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:।'
राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने भी लिखा है -
"वही मनुष्य है जो कि मनुष्य के लिए मरे,
अहा! यह तो पशु संस्कृति है, जो आप-आप ही चरे।"
'परोपकार' का सच्चा उदाहरण सीमा पर डटे वीर सैनिक प्रस्तुत करते हैं। हाड़-माँस को कँपकपाने वाली ठंड में भी अपने राष्ट्र धर्म को निभाते हुए देश के लिए बलिदान होने में पल भर की भी देर नहीं लगाते। उस समय उनकी सोच में यही होता है कि मेरी धरती माँ और मेरे देशवासी सुरक्षित रहें।
प्रकृति
भी परोपकार की जीती-जागती मिसाल है। उसका एक-एक अंग हमें परोपकार की ही शिक्षा प्रदान
करता है। उदाहरण के रूप में देखें तो वृक्ष अपने फल खुद न खाकर दूसरों को समर्पित कर
देता है। बादल स्वयं अपना जल न पीकर दूसरों की भलाई के लिए बरसता है। यहाँ यह बात भी
गौर करने योग्य है कि मनुष्य पर कोई पत्थर बरसाए तो वह बदले में गालियाँ सुनाता है,
मगर पेड़ पत्थर खाने पर भी मीठे फल देता है। इसी तरह बादल भी देश-काल-सीमा का भेद-भाव
किए बिना अपना अमृततुल्य जल हर किसी को प्रदान करते हैं। प्रकृति की इसी विशेषता को
ध्यान में रखकर कहा गया है-
"वृक्ष कबहु नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर।।"
हमारे देश में हर काल में अनेक ऐसे परोपकारी लोग हुए हैं, जिनका यश रूपी शरीर आज भी जीवित है। राजा हर्षवर्धन के बारे में कहा जाता है कि वह प्रत्येक पाँचवे वर्ष में अपनी सारी धन-संपत्ति गरीबों एवं ज़रूरतमंदों में बाँट देते थे और स्वयं खाली हाथ राजमहल लौट आते थे। फिर अगले पाँच वर्ष फिर से अपना खजाना भरते थे और फिर से उस खजाने को जनता में बाँट देते थे। दधीचि को कौन नहीं जानता, उन्होंने तो जीते-जी अपने शरीर की हड्डियाँ परमार्थ के लिए दान कर दी थीं। कर्ण को तो 'दानवीर' के विशेषण से ही अलंकृत किया गया। उन्होंने जन्म से ही शरीर पर खाल के रूप में चिपके हुए कवच और कानों के अमृत-सिक्त कुंडल ब्राह्मण के रूप में आए इंद्र को बिना एक पल गँवाए दान कर दिए थे, जबकि उन्हें पता था कि इन्हें दान देने से मेरी शक्ति कई गुना घट जाएगी और शत्रुओं द्वारा मुझे मारना भी आसान हो जाएगा। राजा शिवि ने भी शरण में आए कबूतर जैसे छोटे-से जीव के लिए अपने शरीर का माँस तक दे दिया था। चालीस दिनों से भूखे राजा रंतिदेव ने हाथ में आए थाल को भूखे अतिथि को समर्पित कर दिया था। हर धर्म में ऐसे अनेक महापुरुषों, तीर्थंकरों या अवतारी पुरुषों के वर्णन हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन ही मानवता की भलाई में समर्पित कर दिया।
स्वतंत्रता
आंदोलन का इतिहास तो ऐसे अनेक वीर क्रांतिकारियों के उदाहरणों से भरा पड़ा है, जिन्होंने
भरी जवानी में ही देश की आजादी के लिए फाँसी का फंदा चूम लिया था। इन्होंने ऐसा क्रांतिकारी
कदम अपने या अपने परिवार के लिए नहीं उठाया था, वरन् हम देशवासियों पर ही उपकार किया
था।
जो दूसरों की भलाई में अपने प्राण त्याग दे, सिर्फ वही परोपकारी की श्रेणी में नहीं आएगा, वरन् भूखे को खाना खिलाने वाला, पेड़-पौधे-पर्यावरण तथा पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील, घायल तथा बीमार की सेवा को परम कर्तव्य समझने वाला, निर्बल-कमज़ोर-बूढ़े-असहायों की देखभाल करने वाला तथा अच्छी सोच से अस्पताल, पाठशाला, गौशाला, वृद्धाश्रम आदि का निर्माण कराने वाला व्यक्ति भी परोपकारी की श्रेणी में ही गिना जाएगा। इस तरह हम देखते हैं कि परोपकार का दायरा अत्यंत विस्तृत है और परोपकारी का उद्देश्य अत्यंत महान।
अंत में मेरा यही कहना है कि ईश्वर ने हमें अमूल्य मानव स्वरूप दिया है तो हमें इसे स्वार्थ के वशीभूत होकर नहीं गँवाना चाहिए, बल्कि इसे लोक कल्याण, जन कल्याण हेतु समर्पित कर देना चाहिए, क्योंकि-
‘‘अहा वही मरा नहीं, जो जिया न आपके लिए’’
अर्थात् जो अपने लिए नहीं मरता है, वो वास्तव में कभी नहीं मरता है, क्योंकि अच्छे कार्यों की वज़ह से उसका यश रूपी शरीर हमेशा लोगों की याद में ज़िंदा रहता है।
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