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कहानी वही, सोच नई

अंगूर तो मीठे हैं

आपने अपने बचपन में वह कहानी अवश्य सुनी होगी, जिसमें एक लोमड़ी भोजन की तलाश में भटक रही होती है, तभी उसे एक अंगूर की बेल दिखाई देती है। उस बेल में पके हुए अंगूर के गुच्छे लटक रहे होते हैं। देखकर लोमड़ी के मुँह में पानी आ जाता है। वह उन गुच्छों को पकड़ने के लिए बहुत उछलती है। मगर लाख कोशिशों के बाद भी एक भी गुच्छा उसके हाथ नहीं लगता, क्योंकि अंगूर के गुच्छे ऊपर की तरफ लटक रहे होते हैं। अतः वे लोमड़ी की पहुँच से दूर होते हैं।  

बहुत प्रयत्न के बाद जब वह थक जाती है, तो अंत में अपनी झेंप मिटाते हुए कहती है, 'अंगूर तो खट्टे हैं'। और ऐसा कहकर वह मुँह बनाती हुई, निराश हो वहाँ से चली जाती है।

अब आप एक अन्य कहानी सुनिए। उस कहानी में भी एक भूखी-प्यासी लोमड़ी अंगूर की बेल के पास पहुँचती है और बहुत प्रयास करने पर भी एक भी अंगूर उसके हाथ नहीं लगता। उसे बहुत शर्मिंदगी महसूस होती है। तभी उसे अपनी परनानी की याद आती है और वह अपनी झेंप मिटाने के लिए परनानी की तरह ही कहती है कि 'अंगूर तो खट्टे हैं'। 

मगर उसकी यह बात वहाँ से गुजर रही एक अन्य लोमड़ी सुन लेती है। वह उस लोमड़ी के पास आती है और अंगूरों पर नजर डालते हुए कहती है, "बहन! मुझे तो अंगूर कहीं से भी खट्टे नहीं लगते। देखने में तो यह बहुत ही पके हुए और मीठे लग रहे हैं। तुम इन्हें खट्टे क्यों बता रही हो।"

पहली लोमड़ी झेंपते हुए कहती है, "अरे बहन! यह तो मुझे भी पता है कि अंगूर पके हुए और मीठे हैं, पर अब तुम्हें क्या बताऊँ, मैं बहुत देर से इन्हें पाने का प्रयास कर रही हूँ। पता नहीं, इतनी देर में तो मुझे कितने ही पशु-पक्षियों ने उछलते-कूदते देख लिया होगा। अतः मुझे मजबूरी में अपनी परनानी की तरह इन अंगूरों को खट्टे बोलना पड़ रहा है। मैं नहीं चाहती कि किसी को यह लगे कि अंगूर मेरे हाथ नहीं लगे, बल्कि सबको यह लगे कि खट्टे होने के कारण मैं ही इन अंगूरों को खाना नहीं चाहती हूँ।"

दूसरी लोमड़ी बोली, "अरे बहन! परनानी वाली कहानी तो मैंने भी अपनी माँ से सुनी है। पर कब तक हम ऐसी कहानियों को ही दोहराते रहेंगे, जिसमें हमारी जाति का अपमान होता है?"

"पर बहन! कर ही क्या सकते हैं? आज मेरी स्थिति भी अपनी परनानी जैसी ही तो है।" पहली लोमड़ी उदासी भरे स्वर में बोली।

"चिंता मत करो बहन! तुम्हारी स्थिति परनानी से अलग है, क्योंकि तुम अकेली नहीं हो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। और तुम्हें पता ही होगा कि एक और एक ग्यारह होते हैं, तो हम दोनों मिलकर कोई न कोई रास्ता अवश्य निकाल लेंगे। आखिर कब तक हम अपनी शर्मिंदगी का बोझा ढोते रहेंगे," दूसरी लोमड़ी ने आत्मविश्वास भरे स्वर में कहा।

पहली लोमड़ी की कुछ समझ न आया। पर फिर भी दूसरी लोमड़ी की बातों पर विश्वास करने के अलावा कोई और चारा न था, अतः वह उसकी ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगी। अचानक दूसरी लोमड़ी की आँखों में चमक भर आई और वह आगे बढ़कर उस दीवार के पास जाकर खड़ी हो गई, जिसके सहारे अंगूर की बेल चढ़ी हुई थी। उसने पहले वाली लोमड़ी को बुलाया और कहा, "बहन! मैं इस दीवार के सहारे खड़ी हो जाती हूँ। तुम कूदकर मेरे ऊपर चढ़ जाना। मेरे ऊपर चढ़ने पर अंगूर के गुच्छे आराम से तुम्हारी पकड़ में आ जाएँगे। फिर जब तक तुम्हारा जी चाहे, पेट भर के पके हुए अंगूरों को खा लेना, तुम्हारे खा लेने के बाद मैं भी तुम्हारे ऊपर चढ़कर मीठे अंगूरों का आनंद ले लूँगी।"

दूसरी लोमड़ी की सूझबूझ भरी बात को सुनकर पहली लोमड़ी प्रसन्नता और आश्चर्य से भर गई। वह झट कूदकर पहली लोमड़ी की पीठ पर चढ़ गई। अब अंगूर के गुच्छे उसकी पकड़ में थे। एक-एक करके दोनों ने जी भर के अंगूर खाए। पहली लोमड़ी ने दूसरी लोमड़ी का आभार जताते हुए कहा, "बहन! आज तुम्हारी वजह से मैं परनानी की तरह शर्मिंदा होने से बच गई।" 

दूसरी लोमड़ी मुस्कुराई, बोली, "बहन! अब पहले तो तुम यह बताओ कि अंगूर कैसे हैं?"

पहली लोमड़ी थोड़ी शर्माई फिर अति उत्साहित होकर बोली, "अंगूर तो मीठे हैं, एकदम मीठे।"

फिर दोनों जोरों से हँसी। दूसरी लोमड़ी ने एक आँख दबाकर कुछ कुटिलता भरे स्वर में कहा, "कल भी आना।मैं इसी स्थान पर, इसी समय तुम्हारा इंतजार करूँगी।"

पहली लोमड़ी उसका आशय समझ गई। दोनों हँसी और फिर पुनः अगले दिन मिलने का वादा कर अपनी-अपनी दिशा की ओर चल दीं।

चित्र Shutterstock से साभार 





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