'दिल का घाव'
बहुत पुराने समय की है। जब लोग पैदल ही यात्राएँ किया करते थे। एक बार कुछ लोगों का समूह यात्रा करते समय एक घने जंगल से गुज़र रहा था। तभी सबने एक शेर की आवाज़ सुनी। सब डर के कारण इधर-उधर भागने लगे। शेर बोला, "डरो मत, मैं तो खुद ही संकट में हूँ। मेरे पैर में एक काँटा लगा हुआ है। न मैं चल पा रहा हूँ, न शिकार कर पा रहा हूँ। मैं काँटे से बहुत पीड़ित हूँ। कृपया मेरा काँटा निकाल दें। मेरी सहायता करें।"
लेकिन किसी की भी हिम्मत शेर के पास जाने की नहीं हो रही थी। उन्हें लगा कि कहीं यह शेर की चाल न हो। उस समूह में रामदास नाम का एक व्यक्ति भी था। उसे शेर की बात में सच्चाई लगी। उसने लोगों से शेर की सहायता करने के लिए कहा, परंतु कोई भी जोखिम उठाने को तैयार न हुआ। सभी लोग आगे बढ़ गए। परंतु रामदास ने शेर की सहायता करने की ठानी। वह डरते हुए शेर के पास गया। उसने देखा, शेर अपना दाहिना पैर ऊपर की ओर उठाए हुए था। उस पैर के पंजे में बहुत बड़ा काँटा चुभा हुआ था और शेर के पंजे से रक्त बह रहा था। काँटे की चुभन से शेर दुख के मारे तड़प रहा था।
रामदास ने शेर से कहा, "मैं तुम्हारे पैर से काँटा निकाल तो दूँगा, पर इसकी क्या गारंटी है कि काँटा निकलने के बाद मुझे खाओगे नहीं?"
शेर ने कहा, "मुझ पर विश्वास रखो। इस समय मैं दर्द से बुरी तरह तड़प रहा हूँ। मैं भला इस भयंकर दर्द से छुटकारा दिलाने वाले को कैसे खा सकता हूँ?"
रामदास को सोच में पड़े हुए देख शेर ने पुनः कहा, "डरो मत, यदि मुझे खाना ही होगा तो मैं तुम्हें ही क्यों खाऊँगा? इस जंगल से तो प्रतिदिन अनेक लोग गुजरते हैं और फिर इस जंगल में अनेक जानवर भी हैं। यदि मुझे खाना ही होगा तो मैं उन्हें खाऊँगा, अपनी सहायता करने वाले को भला क्यों खाऊँगा।? यदि तुम मुझे इस दर्द से मुक्ति दिला दोगे तो मैं तुम्हें बहुत सा धन भी दूँगा, क्योंकि अब तक मैंने जितने भी इंसानों को मारा है, उनके धन, गहने, जेवरात आदि को एक गड्ढे में छिपा कर रखा हुआ है। वह सब मैं तुम्हें दे दूँगा।"
दया एवं लालचवश रामदास ने शेर के पंजे से काँटा निकाल दिया। काँटा निकलने के बाद शेर ने सचमुच राहत की साँस ली और अपने वादे के अनुसार रामदास को बहुत-सा धन दिया तथा यह आश्वासन भी दिया कि भविष्य में तुम्हें जब भी जरूरत पड़े, तुम बेहिचक मेरे पास आ जाना, मैं तुम्हारी सहायता अवश्य करूँगा।
धन पाकर रामदास खुशी-खुशी अपने गाँव की ओर चल दिया। अब तो उसे जब भी ज़रूरत होती, तो वह जंगल आता और शेर से बहुत-सा धन तथा जेवरात आदि लेकर चला जाता।
समय बीतता रहा। रामदास ने अपने बड़े बेटे का विवाह तय किया। उसने सोचा, शेर ने मेरी इतनी मदद की है, उसे भी विवाह में बुलाना चाहिए। शेर ने बहुत मना किया। कहा, "मेरा घर तो जंगल है। यदि मैं तुम्हारे गाँव गया, तो लोग मुझे देखकर डर जाएँगे।" पर रामदास नहीं माना। आखिरकार शेर ने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया।
बारात ने जब लड़की वालों के घर की ओर प्रस्थान किया, शेर भी बारात के पीछे-पीछे चल दिया। शेर को देखकर लोग डर के मारे चीखने लगे और भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। तभी रामदास शेर के पास पहुँचा और उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए बोला, "अरे! डरो मत! यह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ेगा। अरे यह तो मेरा पालतू कुत्ता है, पालतू कुत्ता।"
रामदास के मुख से इस तरह के शब्द सुनकर शेर बहुत दुखी हुआ और चुपचाप जंगल की ओर लौट गया।
कुछ दिन बाद रामदास को अपने बेटे के लिए नया घर बनवाना था। धन की आवश्यकता पड़ने पर वह शेर के पास पहुँचा और कुछ धन देने को कहा। शेर ने कहा, "पहले जो सामने पत्थर पड़ा है, उसे उठाओ।" रामदास ने वैसा ही किया।
अब शेर ने कहा, "इस पत्थर से मेरे शरीर पर प्रहार करो।"
रामदास की कुछ समझ न आया। उसने कहा, "ऐसा क्यों कह रहे हो? मैं भला तुम्हें क्यों मारूँगा।" शेर ने कहा, "मैं जैसा कहता हूँ, वैसा ही करते रहो, वरना मैं तुम्हें मार कर खा जाऊँगा।"
भयभीत हो रामदास ने पत्थर से शेर पर प्रहार किया। पत्थर शेर के माथे पर लगा और वहाँ से खून बहने लगा। रामदास शेर की सहायता के लिए उसकी ओर बढ़ा, परंतु शेर ने कहा, "मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता नहीं है। अभी तुम यहाँ से चुपचाप चले जाओ और थोड़े दिन बाद आना। मैं तभी तुम्हें धन दूँगा।"
रामदास को कुछ समझ में नहीं आया कि आखिर शेर को हुआ क्या है? लेकिन शेर को गुस्से में देखकर वह वापस गाँव लौट आया। कुछ दिन बीत गए, तब रामदास ने सोचा कि अब मुझे शेर के पास जाना चाहिए। रामदास शेर के पास पहुँचा और उससे कुछ धन माँगा। शेर ने कहा, "पहले तुम यह बताओ कि तुमने मुझे कहाँ पत्थर मारा था?"
रामदास ने शेर के माथे पर देखा, मगर उसे वहाँ किसी तरह की चोट नज़र न आई। उसने कहा, "पत्थर तो मैंने तुम्हारे माथे पर ही मारा था, लेकिन अब उसका घाव कहीं नज़र नहीं आ रहा है।"
तब शेर हँसा और बोला, "घाव ही नहीं, बल्कि अब तक तो उसका निशान भी मिट चुका है। तुम समझ ही गए होगे कि शरीर पर लगी चोट तो कुछ समय बाद भर जाती है, लेकिन मन पर लगी चोट कभी नहीं भरती। तुमने उस दिन मुझे सबके सामने 'कुत्ता' कह कर अपमानित किया। वह घाव अभी भी मेरे दिल पर बना हुआ है और वह जीवन भर नहीं भर सकता।"
तब रामदास को सारी बात समझ में आ गई। उसने शेर से बहुत क्षमा-याचना की, पर शेर ने धन की एक पोटली की ओर इशारा करते हुए कहा, "यह मेरे द्वारा तुम्हारे लिए की जा रही अंतिम सहायता है। इसे उठाओ और यहाँ से चलते बनो। आइंदा फिर कभी मुझे अपना मुँह मत दिखाना। वैसे भी मैंने अनेक बार तुम्हें धन देकर और तुम्हारे हाथों से चोट खाकर तुम्हारे एहसान का बदला चुका दिया है। इसलिए अब भविष्य में तुम मेरे पास कभी मत आना। यदि आए तो तुम जिंदा वापस नहीं जा पाओगे।"
यह सुनकर रामदास पछताते हुए वहाँ से चला गया। आज उसे अपने बोले गए कटु वचनों पर बहुत ही अफ़सोस हो रहा था। इन अप्रिय वचनों के कारण ही आज उसने हर मुसीबत में सहायता करने वाले एक सच्चे मित्र को हमेशा के लिए खो दिया था।
अद्भुत |
जवाब देंहटाएं👍
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर
जवाब देंहटाएंNice
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