लकड़ी का कटोरा
एक शहर में अर्चित नाम का युवक अपनी पत्नी, अपने आठ वर्षीय बेटे तथा अपने पिता के संग रहता था। पिता बुजुर्ग हो चले थे। अब काम करते समय उनके हाथ भी काँपने लगे थे।
चारों लोग एक साथ एक ही मेज के इर्दगिर्द बैठकर खाना खाते। पहले तो सब ठीक था, पर अब बुजुर्ग पिता के हाथ काँपने के कारण खाना खाते समय उनके हाथ से कभी खाना नीचे गिर जाता, तो कभी बर्तन नीचे गिर जाते। गिरने के कारण कई बार बर्तन टूट जाते। अर्चित की पत्नी कुछ समय तक तो यह सब सहन करती रही, लेकिन फिर आए दिन अपने महँगे बर्तनों का टूटना तथा खाना खाते में पिता द्वारा गंदगी फैलाना उसे सहन नहीं हुआ। आखिर एक दिन उसने अपने पति से कह ही दिया, "अब मैं पिताजी के साथ खाना नहीं खा सकती, अब से इनकी मेज अलग लगेगी।"
पत्नी के कहे अनुसार अर्चित एक छोटी मेज खरीदकर ले आया और उसे कमरे के एक कोने में रख दिया। अब अर्चित, उसकी पत्नी तथा उसका बेटा एक साथ बैठकर बड़ी मेज पर खाना खाते और बुजुर्ग पिता कोने में रखी एक छोटी मेज पर अलग बैठकर खाना खाते। पति-पत्नी दोनों प्रसन्न थे, क्योंकि अब खाना खाते में उन्हें पिता द्वारा की जा रही गंदगी नहीं झेलनी पड़ती थी।
लेकिन अभी भी पिता के हाथ से बर्तन गिरकर टूटने वाली समस्या जस-की-तस बनी हुई थी। अर्चित की पत्नी से यह भी सहन नहीं हुआ। उसने अर्चित से कहकर लकड़ी का एक कटोरा मँगवा लिया। अब गिरकर बर्तन टूटने का झंझट भी खत्म हुआ।
अब पति-पत्नी दोनों बेफिक्र होकर खाना खाते। पर उनके बेटे को दादा के बग़ैर खाना अच्छा न लगता। उसे अपने दादा जी का अकेलापन और उदास चेहरा देखकर बहुत दुख होता।
समय बीतता गया। एक दिन दोपहर के समय अर्चित एवं उसकी पत्नी आराम कर रहे थे। तभी उन्हें बरामदे से ठोका-पीटी की आवाजें आती सुनाई दीं। आवाज़ सुनकर दोनों वहाँ पहुँचे। देखा, उनके बेटे के हाथ में लकड़ी का एक टुकड़ा है, जिसे वह ठोक रहा है। दोनों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यह इतनी दोपहर में अकेला बैठकर इस लकड़ी के टुकड़े को क्यों ठोक-पीट रहा है?
जब उन्होंने बेटे से ऐसा करने का कारण पूछा, तो उसने कहा, "मैं लकड़ी के इस टुकड़े से एक कटोरा बना रहा हूँ।"
उसकी यह बात सुनकर उन्हें और भी आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, "तुम कटोरा क्यों बना रहे हो? भला इसका क्या करोगे?"बच्चे ने बड़ी ही मासूमियत से उत्तर दिया, "यह मैं अपने लिए नहीं, बल्कि आपके लिए बना रहा हूँ।"
"हमारे लिए? " दोनों ने आश्चर्य से पूछा।
"हाँ, आपके लिए, क्योंकि इस समय हमारे पास सिर्फ एक ही लकड़ी का कटोरा है।"
"मतलब!"
"मतलब ये कि जब आप दोनों बूढ़े हो जाओगे और दादाजी जैसे ही आपके हाथों से बर्तन गिरकर टूटने लगेंगे, तो फिर आप दोनों के लिए लकड़ी के दो कटोरों की आवश्यकता होगी। एक कटोरा तो दादा जी वाला काम में आ जाएगा, पर एक कटोरा कम पड़ेगा। इसलिए मैं अभी से दूसरा कटोरा बनाकर रख रहा हूँ।"
पुत्र की बात सुनकर दोनों अवाक् रह गए। उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हुआ। दोनों की आँखों से अश्रु बहने लगे।
शाम को जब भोजन का समय हुआ। सब कमरे में पहुँचे। अर्चित और उसकी पत्नी ने सबसे पहले छोटी वाली मेज़ को कमरे से बाहर निकाला। और कुर्सी को बड़ी मेज़ के पास ही खिसका दिया।
खाना परोसा जाने लगा। बड़ी मेज़ पर पहले की तरह चार थालियाँ लगाई गईं थीं। अर्चित ने बड़े प्रेम से अपने पिता को अपने पास रखी कुर्सी पर बिठाया। उसकी पत्नी ने चारों के लिए एक जैसे बर्तनों में खाना परोसा।
अर्चित और उसकी पत्नी यह सोचकर प्रसन्न थे कि आज उनके छोटे-से बेटे ने उनकी आँखें खोल दीं थीं। अनजाने में ही उसने उन्हें जीवन की सच्चाई से अवगत करा दिया था।
बुजुर्ग पिता भी इस अचानक आए परिवर्तन से अत्यंत प्रसन्न थे। उनके चेहरे की उदासी अब प्रसन्नता में बदल चुकी थी। घर का वातावरण एक बार फिर सुखद हो गया।
बच्चे को इस बदलाव का कुछ कारण समझ न आया। वह तो खाने की मेज़ पर अपने दादाजी को अपने साथ बैठा देख खुशी से फूले न समा रहा था।
लकड़ी का कटोरा इस समय कूड़ेदान की शोभा बढ़ा रहा था।सीख-हम जो कुछ भी करते हैं, बच्चे उसे बहुत ध्यान से देखते हैं और अपने जीवन में वैसा ही अपनाते हैं। जैसा व्यवहार आज हम अपने बुजुर्गों के संग करेंगे, वैसा ही हमारे बच्चे भविष्य में हमारे साथ करेंगे। अपने कर्मों का फल सबको यहीं भुगतना पड़ता है। अतः सबके साथ अच्छा व्यवहार करें। जो हम अपने लिए नहीं चाहते, वैसा व्यवहार किसी अन्य के साथ भी न करें।
चित्र Shutterstock से साभार
Bahut khoob
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