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माँ, नाटक नहीं सच है ये (Hindi Story)

ग्यारह वर्षीय रोहन ने स्कूल बस से उतरकर घर की घंटी बजाई। पर दरवाजा उसकी आशा के विपरीत उसकी दीदी ने खोला। उसने दीदी की तरफ उड़ती-सी नज़र डाली और फिर माँ-माँ चिल्लाते हुए रसोई की ओर दौड़ा। प्रतिदिन उसके स्कूल से आने पर माँ ही दरवाजा खोलती थीं और वह माँ की सूरत देखकर निहाल हो जाता था।यदि कभी माँ ने दरवाजा नहीं खोला, तो माँ उसे रसोईघर में काम करती दीख जाती थीं। 

लेकिन यह क्या, आज तो माँ रसोईघर में भी नहीं थीं। रोहन माँ-माँ कहते हुए माँ के कमरे की ओर दौड़ा, पर उसे माँ वहाँ भी दिखाई नहीं दीं।

"अरे रोहन! माँ, माँ चिल्लाते हुए यहाँ-वहाँ क्या दौड़ लगा रहे हो? कहा न, आज माँ घर में नहीं हैं।"

"घर में नहीं हैं मतलब! कहाँ गई हैं?"

"माँ आज मौसी के घर गई हैं।" 

"क्यों? वह भी मुझे बिना बताए?"

"अरे! कहा न कि कोई जरूरी काम आ गया था। दो-तीन घंटे में आ जाएँगी। मुझसे कह कर गई हैं कि मैं तुम्हें खाना खिला दूँ। तुम कपड़े चेंज करो, तब तक मैं खाना लेकर आती हूँ।"

"नहीं-नहीं, मुझे खाना नहीं खाना। तुम्हें तो पता ही है कि मैं माँ के साथ ही खाना खाता हूँ," कहकर रोहन बैठक में पड़े सोफे पर मुँह फुलाकर बैठ गया।

इतने में पर्दे के पीछे छिपी माँ दबे पाँव आईं और पीछे से रोहन की आँखों को अपने हाथों से ढककर खड़ी हो गईं। रोहन ने बंद आँखों से उनके हाथों का स्पर्श किया और खुशी से चिल्ला उठा - "माँ।"

माँ ने आँखों पर से हाथ हटाए। रोहन सामने माँ को पाकर खुशी से उनसे लिपट गया और जोर-जोर से रोने लगा। माँ ने कहा, "अरे पगले! रोता क्यों है? मैं तो कहीं नहीं गई थी। वह तो आज तेरी दीदी ने कहा कि ज़रा रोहन के साथ मजाक करते हैं।"

"माँ, ऐसा मजाक कभी मत करना। आपको तो पता ही है कि स्कूल से आते ही मुझे आपकी सूरत देखनी होती है। इसलिए आप वादा करो कि आप मुझे बताए बिना कभी भी कहीं नहीं जाओगी और आइंदा इस तरह का मजाक भी नहीं करोगी।"

"ठीक है! नहीं करूँगी बाबा! चल, अब जल्दी से हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल ले, तब तक मैं खाना लगाती हूँ", माँ ने उसके गालों पर ढुलक आए आँसुओं को पोंछते हुए कहा। रोहन खुशी-खुशी कपड़े बदलने चला गया।

समय बदलता गया। दीदी की शादी हो गई। पिताजी के जाने के बाद माँ भी अकेली हो गईं। माँ बड़े अरमानों से इंजीनियर बन चुके रोहन के लिए सुंदर-सी बहू ढूँढ़कर लाईं। पर उनके घर में रोहन के ससुराल वालों की दखलअंदाजी इतनी अधिक थी कि पता ही नहीं चला कि कब सास-बहू के रिश्तों में खटास पड़ती चली गई। रोहन की पत्नी को उसकी माँ के साथ रहना अखरने लगा। 

शादी के बाद रोहन की पत्नी ने अपने मायके वालों के सिखाए में आकर फरमान जारी कर दिया कि माँ जल्द-से-जल्द घर रोहन के नाम कर दें, वर्ना दीदी इस घर पर अपना हिस्सा माँगने लगेंगी। खैर, माँ ने सोचा कि मेरे मरने के बाद तो यह घर रोहन को मिलना ही है, तो क्यों न उसे अभी से दे दिया जाए। और वैसे भी उनकी बेटी को उनके घर की जरूरत भी न थी। उसके पास तो उसके ससुर द्वारा बनाई गई बहुत बड़ी कोठी थी ही।

घर रोहन के नाम होते ही बहू को माँ का वहाँ रहना अब और भी अधिक अखरने लगा। एक दिन फिर बहू ने रोहन को फ़रमान सुना ही दिया, "इस घर में अब या तो माँ रहेंगी या मैं। मुझसे तुम्हारी माँ की सेवा नहीं होती।" 

रोहन ने दीदी से कहा, "क्यों न माँ को कुछ दिन के लिए तुम अपने पास रख लो।"

पर दीदी ने दो टूक शब्दों में कह दिया, "क्यों? जब माँ की दौलत हड़पने के लिए तुम हो, तो देखभाल मैं क्यों करूँ?  हाँ, फिर भी यदि तुम चाहते हो तो मैं माँ को अपने साथ रखने को तैयार हूँ, पर इसके लिए तुम्हें घर मेरे नाम करना होगा, क्योंकि मेरा तो सास-ससुर वाला घर है, उनके साथ माँ कैसे एडजस्ट हो पाएँगी? इसके लिए तो मुझे अपना घर छोड़कर उनके पास आकर रहना होगा। और फिर बिना घर के........."

रोहन ने दीदी को लालची, स्वार्थी और न जाने क्या-क्या कहा और फिर दोनों ने कभी एक-दूसरे का मुँह न देखने की बात कहकर फोन काट दिए।

पर अभी माँ की समस्या तो ज्यों की त्यों बनी हुई थी। एक दिन रोहन ऑफिस से आया तो देखा पत्नी अपना बैग तैयार कर रही है। 

"कहीं जा रही हो क्या?" रोहन ने पूछा।

पत्नी जैसे उसके पूछने का ही इंतजार कर रही थी। एकदम फट पड़ी, "हाँ अपने मायके जा रही हूँ, वो भी हमेशा के लिए। तुम से तो कुछ होता नहीं, इसलिए मुझे ही यहाँ से जाना पड़ेगा।"

"आखिर क्या हुआ?" रोहन को बहुत कुछ समझ आ चुका था, फिर भी अनजान बनते हुए उसने पूछा।

"क्यों? कितनी बार तुमसे कहा है कि इस घर में या तो मैं रहूँगी या तुम्हारी माँ।"

"आखिर अब उन्होंने क्या कर दिया? मैंने उन्हें हज़ार बार कहा है कि तुम अपनी दो रोटी से मतलब रखो। पता नहीं क्यों घर के मामलों में टाँग अड़ाती फिरती हैं?" रोहन पत्नी का पक्ष लेते हुए बोला। 

वह पत्नी की धमकी का मतलब जानता था। उसे पता था कि यदि यह अपने मायके चली गई तो इसके घर वाले इसे आसानी से वापस भेजने वाले नहीं हैं। वह उसे यानी रोहन को दुनिया भर का नाच नचा देंगे।


अब तक दोनों की बातें सुनकर माँ भी कमरे से बाहर आ गईं थीं, बोलीं, "रोहन! बेटा, मैं तो सुबह से बहू से कुछ भी नहीं बोली। और वैसे भी मैं तो अब अपनी कोई राय देती ही‌ नहीं। पूरा दिन घर के काम में हाथ बँटाती हूँ। पता नहीं बहू को मुझसे इतनी नाराजगी क्यों है?"

"मुझे इनका घर में रहना ही पसंद नहीं है। पता नहीं क्यों मुझे इनकी शक्ल से ही चिढ़ है", रोहन की पत्नी ने बुरा-सा मुँह बनाते हुए कहा।

रोहन जानता था कि माँ शुरू से ही शांत स्वभाव की हैं और फिर उसकी शादी के बाद से तो और भी शांत व सहनशील हो गई हैं। मायके वालों के सिखाए में आकर उसकी पत्नी ही जान-बूझकर माँ से उलझती है। पर सब जानते हुए भी पत्नी की धमकी के आगे उसके मुख से माँ के पक्ष में एक शब्द न निकला। जुबान मानो तालु से चिपक गई थी। बस हाथ जोड़कर पत्नी को मनाता रहा।‌‌‌‌‌‌‌आखिर पत्नी इस शर्त पर रुक गई कि कल तक फैसला कर लेना कि घर में मुझे रखना है या अपनी माँ को।

अगले दिन रोहन ऑफिस न जाकर सुबह से ही फोन पर व्यस्त हो गया। हर फोन के बाद डायरी में कुछ नंबर और पते नोट करता। माँ का हृदय आशंका से धड़क उठा। उन्होंने भरे गले से रोहन से कहा, "बेटा! मुझे अपने से अलग मत करना। मैं तुम्हरे बिना नहीं रह पाऊँगी।"

पर रोहन का दिल न पसीजा। उसने दो टूक कह दिया, "आपने तो अपनी जिंदगी जी ली। अब मुझे भी मेरी जिंदगी जी लेने दो। यदि आप मेरी गृहस्थी टूटने से बचाना चाहती हो, तो आपको हम दोनों की जिंदगी से दूर जाना ही होगा।"

शाम होने से पहले ही रोहन माँ को लेकर वृद्धाश्रम के दरवाज़े पर खड़ा था। सारी औपचारिकताएँ करके वह जाने लगा। माँ बोझिल कदमों से उसके पीछे-पीछे चली आईं, पर देहरी पर आकर ठिठक गईं। उन्हें लगा अभी रोहन पलटेगा और भागकर उनके आँचल में छिप जाएगा और बचपन की तरह फिर से कहेगा, 'माँ, आपको पता है न कि स्कूल से आते ही मुझे आपकी सूरत देखनी होती है। आप वादा करो कि आप मुझसे दूर जाने का नाटक कभी नहीं करोगी।'

शायद वह पुत्र मोह में यह भूल चुकी थीं कि अब रोहन बड़ा हो गया है। वह स्कूल नहीं, दफ्तर जाने लगा है। अब उसे माँ की जरूरत नहीं है। 

आखिर रोहन नहीं पलटा। वह उसे कार में बैठकर जाते देखती रहीं। कार आँखों से ओझल हो गई। अचानक उन्हें सब कुछ लुटने का अहसास हुआ। वह समझ गईं कि उन्होंने तो बचपन में रोहन से दूर जाने का नाटक भर किया था, पर रोहन उनसे बड़ा खिलाड़ी था। वह कोई नाटक नहीं कर रहा है, बल्कि वह सचमुच ही हमेशा के लिए उनकी जिंदगी से दूर जा चुका है। 

सच्चाई का अहसास होते ही वह दहाड़ें मारकर रोने लगीं। यह दूसरा अवसर था, जब वह इस तरह रोई थीं। पहली बार अपने पति की मृत्यु पर रोई थीं, पर तब रोने के लिए उनके पुत्र रोहन का कंधा था। कंधा तो आज भी था, पर वह कंधा सर्वथा अपरिचित था। 

 




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