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सोलह श्रृंगार कौन-कौन से हैं?

            सोलह श्रृंगार 

सोलह श्रृंगार का अर्थ है-सोलह प्रकार के आभूषण, जो शरीर के अलग-अलग अंगों पर पहने जाते हैं। करवाचौथ आदि विशेष अवसरों पर महिलाएँ या नववधुएँ-ये सोलह श्रृंगार करती हैं। 

सबसे पहले हल्दी-चंदन-बेसन का लेप या उबटन लगाकर महिलाएँ स्नान करती हैं। उसके पश्चात् ये सोलह श्रृंगार करती हैं। पहले स्वर्ण आभूषण या कहीं-कहीं फूलों के आभूषण बनाकर पहने जाते थे, परंतु आजकल हीरे, मोती तथा चाँदी आदि के आभूषण भी पहने जाते हैं। 

करवाचौथ पर सुहागिन महिलाएँ व्रत रखती हैं। करवा माता की पूजा करती हैं और उनसे अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। इस अवसर पर महिलाएँ सोलह श्रृंगार करती हैं। तो चलिए, आज हम जानते हैं कि सोलह श्रृंगार कौन-कौन से हैं-

(१) मज्जन (धोना या स्नान करना)

(२) चीर (कपड़े)

(३) हार (गले का हार)

 (४) तिलक (माथे पर लगाने वाला टीका)

(५) अंजन (काजल)

(६) कुंडल (कान के आभूषण)

(७) नासामुक्ता (नाक का आभूषण)

(८) केशविन्यास (बालों का सजाना)

(९) चोली (कंचुक) (ऊपर का कपड़ा)

(१०) नूपुर (पायल)

(११) अंगराग (सुगंध)

(१२) कंकण (चूड़ी)

(१३) चरणराग (चरण का रंग)

(१४) करधनी (कमर का आभूषण)

(१५) तांबूल (पान)

(१६) करदर्पण (दर्पण)

इनके अलावा, सोलह श्रृंगार में सिंदूर, बिंदी, काजल, चूड़ियां, मेंहदी, इत्र, लिपस्टिक और नेल पॉलिश जैसे आइटम भी शामिल हो सकते हैं। 

प्राचीन संस्कृत साहित्य में षोडश शृंगार का वर्णन 'श्री वल्लभदेव' की सुभाषितावली (१५ वीं शती या १२ वीं शती) में हुआ है। उनके अनुसार सोलह श्रृंगार इस प्रकार हैं—

"आदौ मज्जनचीरहारतिलकं नेत्रांजनं कुडले, नासामौक्तिककेशपाशरचना सत्कंचुकं नूपुरौ।

सौगन्ध्य करकंकणं चरणयो रागो रणन्मेखला, ताम्बूलं करदर्पण चतुरता शृंगारका षोडण।।"

अर्थात् 

(१) मज्जन, 

(२) चीर, 

(३) हार, 

(४) तिलक, 

(५) अंजन, 

(६) कुंडल, 

(७) नासामुक्ता, 

(८) केशविन्यास, 

(९) चोली (कंचुक), 

(१०) नूपुर, 

(११) अंगराग (सुगंध), 

(१२) कंकण, 

(१३) चरणराग, 

(१४) करधनी, 

(१५) तांबूल तथा 

(१६) करदर्पण (आरसो नामक अंगूठी)।


पुनः १६ वीं शती में 'श्री रूपगोस्वामी' के 'उज्वलनीलमणि' में शृंगार की यह सूची इस प्रकार गिनाई गई है—

"स्नातानासाग्रजाग्रन्मणिरसितपटा सूत्रिणी बद्धवेणिः सोत्त सा चर्चितांगी कुसुमितचिकुरा स्त्रग्विणी पद्महस्ता। :

ताभ्बूलास्योरुबिन्दुस्तबकितचिबुका कज्जलाक्षी सुचित्रा। राधालक्चोज्वलांघ्रिः स्फुरति तिलकिनी षोडशाकल्पिनीयम्।।"

अर्थात् -

(१) स्नान, 

(२) नासा मुक्ता, 

(३) असित पट, 

(४) कटि सूत्र (करधनी), 

(५) वेणीविन्यास, 

(६) कर्णावतंस, 

(७) अंगों का चर्चित करना, 

(८) पुष्पमाल, 

(९) हाथ में कमल, 

(१०) केश में फूल खोंसना, 

(११) तांबूल, 

(१२) चिबुक का कस्तुरी से चित्रण, 

(१३) काजल, 

(१४) शरीर पर पत्रावली, मकरीभंग आदि का चित्रण, 

(१५) अलक्तक और 

(१६) तिलक। 

यहाँ श्रीवल्लभदेव के तथा श्रीरूपगोस्वामी के द्वारा वर्णित सोलह श्रृंगार की सूची में विभिन्नता स्पष्ट है।

हिंदी कवियों में भक्ति काल के कवि श्री 'मलिक मुहम्मद जायसी' ने सोलह शृंगार इस प्रकार बताए हैं—

(१) मज्जन, 

(२) स्नान (जायसी ने मज्जन तथा स्नान को अलग रखा है), 

(३) वस्त्र, 

(४) पत्रावली, 

(५) सिंदूर, 

(६) तिलक, 

(७) कुंडल, 

(८) अंजन, 

(९) अधरों का रंगना, 

(१०) तांबूल, 

(११) कुसुमगंध, 

(१२) कपोलों पर तिल, 

(१३) हार, 

(१४) कंचुकी, 

(१५) छुद्रघंटिका ओर 

(१६) पायल।

रीतिकाव्य के आचार्य 'केशवदास' ने भी सोलह श्रृंगार का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है—

"प्रथम सकल सुचि, मंजन अमल बास, जावक, सुदेस किस पास कौ सम्हारिबो।

अंगराग, भूषन, विविध मुखबास-राग, कज्जल ललित लोल लोचन निहारिबो।

बोलन, हँसन, मृदुचलन, चितौनि चारु, पल पल पतिब्रत प्रन प्रतिपालिबो।

'केसौदास' सो बिलास करहु कुँवरि राधे, इहि बिधि सोरहै सिंगारन सिंगारिबो।"

उक्त छंद की टीका करते हुए सरदार कवि ने ये श्रृंगार इस प्रकार गिने हैं—

(१) उबटन, 

(२) स्नान, 

(३) अमल पट्ट, 

(४) जावक, 

(५) वेणी गूँथना, 

(६) माँग में सिंदूर, 

(७) ललाट में खौर, 

(८) कपोलों में तिल, 

(९) अंग में केसर लेपन, 

(१०) मेंहदी, 

(११) पुष्पाभूषण, 

(१२) स्वर्णाभूषण, 

(१३) मुखवास 

(१४) दंत मंजन, 

(१५) तांबूल और 

(१६) काजल। 

'नगेंद्रनाथ वसु' ने हिंदी विश्वकोश में इन श्रृंगारों की गणना निम्नलिखित प्रकार से की है— 

(१) उबटन, 

(२) स्नान, 

(३) वस्त्रधारण, 

(४) केश प्रसाधन, 

(५) काजल, 

(६) सिंदूर से माँग भरना, 

(७) महावर, 

(८) तिलक, 

(९) चिबुक पर तिल, 

(१०) मेंहदी, 

(११) सुगंध लगाना, 

(१२) आभूषण, 

(१३) पुष्पमाल, 

(१४) मिस्सी लगाना, 

(१५) तांबूल और 

(१६) अधरों को रंगना 

इस प्रकार भिन्न-भिन्न देश-काल-खंड में 'सोलह श्रृंगार' विषय पर सभी लेखकों, विद्वानों, आचार्यों एवं कवियों की अलग-अलग मान्यताएं रही हैं।




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