"हे भगवान! आज फिर कपड़ों पर स्याही के छींटे! लगता है, आज भी किसी से झगड़ा करके आया है।"
"रोहित! इधर तो आ ज़रा।" मालती ने अपने नौ वर्षीय बेटे को पुकारा।
"हाँ मम्मी, आपने मुझे बुलाया।"
"हाँ बेटे, यह बताओ आज किस से झगड़ा हुआ है?"
"किसी से भी तो नहीं" रोहित ने कुछ घबराते हुए कहा।
"देख! झूठ मत बोल। सच-सच बता। तेरी कमीज़ पर स्याही किसने फेंकी है।"
"वो.……स्या…ही..वो तो मम्मी अनुभव से गलती से गिर गई" हकलाते हुए रोहित ने कहा। "गलती से गिर गई…..मुझसे कुछ भी मत छुपा। मैं सब जानती हूँ कि गलती से गिरी है या फिर अनुभव ने जानबूझकर फेंकी होगी। वैसे भी स्याही के छींटे तेरी कमीज़ में सामने की तरफ़ हैं। यहाँ सामने की तरफ़ भला गलती से स्याही कैसे गिर सकती है। ये तो जानबूझकर छिड़की गई छींटें हैं।"
"सच-सच बोल दे, वरना……" रोहित द्वारा अनुभव का बचाव किए जाने पर मालती आग-बबूला हो उठी।
"मम्मी! असल में अनुभव मुझसे रंग माँग रहा था। आपने कहा था न कि ये रंग बहुत महँगे हैं, किसी को मत देना। बस, मैंने देने से मना कर दिया तो उसने इतनी-सी बात पर नाराज़ होकर अपने पैन की स्याही मेरे ऊपर छिड़क दी" रोहित अपनी माँ के गुस्से से परिचित था, अतः उसने डरते-डरते सारी सच्चाई बयान कर दी।
"फिर तूने क्या किया?"
"मैंने मैम से उसकी शिकायत की। मैम ने उसे बहुत डाँटा भी।"
"सिर्फ़ डाँटा? सिर्फ डाँटने से भला क्या हुआ? क्या तेरी कमीज़ पर से स्याही के निशान हट गए? नहीं न। अरे बुद्धू! कितनी बार तुझे समझाया है, पर तेरी अक्ल में कुछ जाता ही नहीं। हर बार कुछ-न-कुछ नुकसान करा के चला आता है। कितनी बार कहा है कि यूँ मुँह लटका कर मेरे सामने मत आया कर।"
रोहित बेचारा समझ नहीं पा रहा था कि इस प्रकरण में आखिर उसका दोष क्या था? मम्मी के कहने पर ही उसने रंग देने से इंकार किया था। फिर उसने अनुभव की शिकायत तुरंत ही तो मैम से कर दी थी और फिर मैम ने उसे बहुत डाँटा भी तो था।
यही सब सोचकर उसने अपनी सफाई देनी चाही, "मम्मी, मैंने तो उसी समय……"
"मुझे कुछ नहीं सुनना। जब अनुभव ने तेरी कमीज़ पर स्याही छिड़की थी तो तुझे भी उसी समय उसकी कमीज़ पर स्याही छिड़क देनी थी। तेरे पास भी तो स्याही वाला पैन है। अभी आठ-दस रोज़ पहले ही तो तुझे दिलवाया था। जिस तरह अनुभव ने तेरे साथ किया, उसी तरह तुझे भी उसके साथ करना था। कितनी बार कहा है कि कमज़ोर बनने की ज़रूरत नहीं है, ईंट का जवाब पत्थर से देना है। पर पता नहीं क्यों अपने बाप की तरह भोला भंडारी बना रहता है। जब देखो तब आए दिन या तो किसी से पिट कर आ जाता है या अपना कोई नुकसान करवा कर आता है। इतनी बार समझने पर भी अक्ल नहीं आती कि कोई एक लगाये तो दो लगाकर आये। खामखां सीधापन दिखाने का क्या से फ़ायदा?" लगातार डाँटती-डपटती माँ ने रोहित को गुस्से से देखा फिर बड़बड़ाईं, "देख, आइंदा इस तरह नुकसान करवाकर आया, अबकी तेरी खैर नहीं।"
नन्हा रोहित माँ के गुस्से को जानता था, अतः डर के कारण कुछ नहीं बोला। लेकिन उससे तीन वर्ष बड़ी उसकी बहन रुचि से रहा नहीं गया और वह बोल पड़ी, "मम्मी, आपको ध्यान है न कि अभी दो-तीन दिन पहले स्कूल में मेरी क्लास के एक लड़के ने मुझे टाँग अड़ाकर गिरा दिया था…."
"हाँ-हाँ।"
और फिर मैंने भी अपनी सहेली के साथ मिलकर उसे पीट दिया था और अपना बदला ले लिया था…।"
"हाँ-हाँ, मुझे सब याद है, मगर उस बात को अब क्यों बता रही है? क्या फिर से कोई पंगा तो नहीं कर लिया?" माँ थोड़ी झुँझला-सी उठीं।
"नहीं, मैं तो यह बताना चाह रही थी कि उस दिन जब यह बात मैंने आपको बताई थी, तो खुश होने की बजाय आपने मेरी कितनी डाँट लगाई थी और मुझे किसी से भी झगड़ा न करने को कहा था।"
"हां तो, क्या ग़लत कहा था?" माँ फिर झुँझलाईं।
"पर, मैंने तो उस लड़के से उसकी जान-बूझकर की गई बदतमीजी का बदला लिया था, तब भी आपने मुझे बहुत डाँटा और रोहित के दोस्त ने स्याही जान-बूझकर फेंकी या उससे गलती से गिरी, यह भी पता नहीं, फिर भी आप रोहित से बदला लेने की बात कह रही हैं।"
"अरे पागल, तू नहीं समझती। रोहित लड़का है, इसे दब्बू नहीं होना है। यदि इसे आज नहीं टोका, तो यह अपने बाप की तरह दब्बू बनता चला जाएगा। और फिर जीवन भर सबकी चापलूसी ही करता रहेगा। पर तू तो लड़की है। अरे! भला लड़कियों को लड़ाकू बनाने से क्या फायदा? तुझे कौन-सी अपनी बहादुरी दिखाने फ़ौज में जाना है? और अगर इस तरह लड़कों को पीटेगी, तो समाज में बदनाम हो जाएगी। तेरा ब्याह होना भी मुश्किल हो जाएगा।"
"लेकिन मम्मी…."
बेटी की बात को नज़र-अंदाज़ करते हुए "चल छोड़ तुझे यह बातें अभी समझ नहीं आएँगी।" कहती हुई माँ किचन की ओर चली गईं।
नन्ही रुचि हैरानी भरी नज़रों से जाती हुई माँ को देखती रही।
'लड़की हो, इसलिए ज़ुल्म सहना है। लड़ना-झगड़ना लड़कियों को शोभा नहीं देता। ज़्यादा जबान चलाओगी, तो ससुराल वाले अगले ही दिन मायके की चौखट पर पटक जाएँगे…' ऐसी तमाम बातें रुचि की माँ ने अपनी माँ से अक्सर सुनी थीं। उसने कभी नहीं जानना चाहा कि आखिर सच्चाई के लिए बोलना या हक के लिए लड़ना गलत कैसे है?
शायद आज उन्होंने रुचि के अवचेतन मन में भी उसी बीज को बोने की एक शुरुआत कर दी थी।
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