हरी मखमली चादर ओढ़े,
पहले धरती मुसकाती थी।
पंछी के मीठे कलरव से,
हर सुबह इठलाती थी।
नदियों का निर्मल पावन जल,
जीवन का राग सुनाता था।
पेड़ों की शीतल छाँव तले,
हर तन-मन सुख पा जाता था।
पर लोभ की अग्नि में मानव ने,
देखो सब कुछ बिसराया है।
स्वार्थ की अंधी भाग-दौड़ में,
प्रकृति का दामन ठुकराया है।
कटते वन व जलते जंगल,
और बंजर होती धरती माँ।
सूख रहे ये जीवन-झरने,
चहुँ ओर घिरा धुआँ-धुआँ।
ओजोन की चादर तार-तार हो,
पड़ी-पड़ी कराहती है।
तेज धधकती सूर्य किरण नित,
चेतावनी देकर जाती है।
‘संभल जाओ हे स्वार्थी मानव,
अब भी थोड़ा समय है बाकी।
वर्ना फिर जल्दी बुझ जाएगी,
तेरे जीवन की यह बाती।
न सँभले गर, अब भी हम तुम,
तो प्रकृति देगी सब सूद समेत।
जैसा हम देंगे, वैसा पाएँगे,
धरती न रखती टका एक।
आज जो दिख रहे बाढ़ बवंडर,
ये तो बस एक झाँकी है।
थाम के दिल फिर देखना होगा,
क्योंकि, पूरी पिक्चर अभी बाकी है।
धरती को और गंगा को ‘माँ’,
कहने भर से अब नहीं चलेगा।
इनका दामन साफ सफाई,
और हरियाली से भरना होगा।
आने वाली पीढ़ी हमको न कोसे,
मिलके ऐसा कुछ करना होगा।
उनकी हर साँस रहे सुरक्षित,
अब जल्दी सुनिश्चित करना होगा।
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