सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

व्यंग्य का अद्भुत चितेरा (हरिशंकर परसाई के जन्म-दिवस पर विशेष)

व्यंग्य का अद्भुत चितेरा हरिशंकर परसाई के जन्म-दिवस पर विशेष सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी का जन्म मध्य-प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी नामक गाँव में 22 अगस्त सन् 1924 को हुआ। वे उन बच्चों में से थे, जिनके सिर से अल्पायु में ही माता-पिता का स्नेह-सिक्त साया उठ जाता है। भाई-बहनों में सबसे बड़े होने के कारण जीवन की भयावह एवं कटु सच्चाइयों से उन्हें ही सामना करना पड़ा।    परसाई जी का जीवन कष्टमय एवं संघर्षपूर्ण रहा। उनकी आँखों ने बाल्यकाल में ही ‘प्लेग’ जैसी महामारी की चपेट में आकर शरीर त्यागते हुए माँ के करुणांत को देखा। उन्होंने अनेक स्थानों पर नौकरी की, किंतु कहीं भी स्थायी रूप से नहीं रह सके। इसका कारण शायद यही था कि किसी भी तरह का बंधन उन्हें पसंद नहीं था। अतः उन्होंने स्वतंत्र लेखन आरंभ कर दिया और सन् 1957 में नौकरी से अंतिम एवं स्थायी विदा ले ली।  लगातार संघर्षों से सामना होने पर भी उनके अदम्य साहस ने उन्हें झुकने की बजाय उन संघर्षों से सामना करने को प्रेरित किया। उन्होंने बहुत जल्दी व्यक्तिगत घेरा त्यागकर सामाजिक जीवन में विचरना प्रारंभ कर दिया। अनगिनत दुःख

क्या हम पूर्ण स्वतंत्र हैं? Article on 15 August

क्या हम पूर्ण स्वतंत्र हैं? 15 अगस्त सन् 1947 का दिन हमारे भारतीय इतिहास में अत्यंत गौरवपूर्ण दिन है। हो ही क्यों न, इस दिन हमें अंग्रेज़ों से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। ऐसी स्वतंत्रता, जिसे पाने के लिए हज़ारों देशभक्तों ने अपनी जान न्योछावर कर दी थी। ‘स्वतंत्रता’, ‘आज़ादी’, ‘स्वाधीनता’-ये सभी एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं। सभी का एक ही अर्थ है-बंधन मुक्त होना, अपनी इच्छा से जीवन जीना। इन शब्दों की मिठास वास्तव में वर्णनातीत है। ये शब्द अनगिनत अहसासों से भरे हैं। ‘आज़ादी’ शब्द जे़हन में आते ही ऐसा लगता है मानो हमारे पंख उग आए हों और हम नीलगगन में दूर कहीं उड़ने को तैयार हों। आज़ादी भला किसे नहीं अच्छी लगती? सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं, वरन् छोटे से बड़े सभी पशु-पक्षी, पेड़ का हर पत्ता, सागर की प्रत्येक लहर, नदी की हर उछाल-सभी जीवित प्राणी आज़ाद रहना चाहते हैं। बंधन में बँधना भला कौन चाहता है? पशु-पक्षियों को पिंजरे में बंद करके उन्हें समस्त सुविधाएँ, जैसे, समय-समय पर भोजन-पानी आदि उपलब्ध कराते रहो, पर फिर भी वे अवसर पाते ही पिंजरे से निकल भागने को आतुर रहते हैं। मनुष्य तो एक चेतनाशील प

संत कबीर की भाषा

              संत कबीर की भाषा  कबीर दास जी त्रिकालदर्शी क्रांतिकारी कवि थे। यही कारण है कि निरक्षर होते हुए भी कबीर आज भी साक्षर लोगों के द्वारा पढ़े जाते हैं। उनके साहित्य पर लगातार शोध कार्य होते रहते हैं। जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी अन्य कवियों की भाषा में नहीं है। यह परम आश्चर्य की बात है कि जहाँ आज के बहुत-से पढ़े-लिखे कवियों को भी भाषा का सही-सही प्रयोग करना नहीं आता है, अनुभूति और अभिव्यक्ति में सामंजस्य बिठाना नहीं आता है, वहीं अनपढ़ कबीर को सुप्रसिद्ध आलोचक पं0 हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘भाषा का डिक्टेटर’ कहकर सम्मानित किया। कहा जाता है कि भाषा पर कबीर को पूर्ण अधिकार प्राप्त था। भाषा कबीर के भावों के पीछे-पीछे चलती थी अर्थात् उनकी गुलाम थी। भाषा उनके सामने लाचार-सी नज़र आती थी। पं0 हजारी प्रसाद द्विवेदी जी लिखते हैं- ‘‘भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी वे़ डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया। बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।’’ पं0 हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी कबीर की भाषा के विषय में ल

कबीर के दोहों को ‘साखी’ क्यों कहा जाता है

कबीर के दोहों को ‘ साखी ’  क्यों कहा जाता है कबीर दास जी एक संत थे। वे एक स्थान पर न रहकर अन्य संतों की तरह ही जगह - जगह भ्रमण करते रहते थे। उनकी इस घुमक्कड़ी ने उन्हें अनेक भाषाओं एवं लोगों से तो परिचित कराया ही , साथ ही उनके अनुभवों का दायरा भी विशाल बनाया। यही कारण है कि अनपढ़ होते हुए भी कबीरदास जी का अनुभवजन्य ज्ञान इतना विस्तृत था , जिसने मोटी - मोटी पोथी पढ़े हुए तथाकथित ज्ञानियों को भी चमत्कृत कर दिया। कबीर ने अपनी निरक्षरता को इंगित करते हुए लिखा है - ‘‘ मसि कागद छुवो नहिं , कलम गहि नहिं हाथ। ’’ चारिक जुग को महातम , मुखहिं जनाई बात।। ’’ अर्थात् न तो मैंने कभी कागज और स्याही का ही स्पर्श किया और न ही कभी लेखनी हाथ में ली। चारों युगों का महात्म्य केवल अपने मुँह द्वारा जता दिया है। संत कबीर अपने समकालीन कवियों में सबसे अधिक प्रतिभाशाली कवि माने जाते ह़ैं। अनपढ़ होते हुए भी वे अपने समाज की समस्याओं , तत्कालीन परिस्थित

Article निंदक नियरे राखिए

निंदक नियरे राखिए यह पंक्ति संत कवि कबीरदास जी के एक प्रसिद्ध दोहे की है। पूरा दोहा इस प्रकार है- ‘‘निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय। बिनु पाणि साबण बिना, निरमल करै सुभाय।।’’ अर्थ-कबीर दास जी कहते हैं कि हमें हमारी निंदा करने वाले व्यक्ति से बैर नहीं पालना चाहिए, बल्कि उसे अपनी कुटिया में, अपने घर के आँगन में अर्थात् अपने समीप रखना चाहिए। निंदक व्यक्ति के कारण बिना पानी और बिना साबुन के हमारा स्वभाव निर्मल बन जाता है। अब आप सोच रहे होंगे कि कबीर ने ऐसी बात क्यों कह दी? भला जो व्यक्ति हमारी बुराई कर रहा हो, उससे हमारा सुधार कैसे हो सकता है? तो मैं आपको बता दूँ कि कबीर दास जी महान समाज-सुधारक थे। उनकी हर एक साखी उनके अनुभव का आईना है। उनकी हर एक बात में गूढ़ अर्थ निहित है। कबीर दास जी ने एकदम सही कहा है कि निंदक व्यक्ति बिना किसी खर्च के हमारा स्वभाव अच्छा बना देता है। सोचिए, हमें अपने तन की स्वच्छता के लिए साबुन एवं पानी आदि की आवश्यकता पड़ती है, जबकि मन को स्वच्छ करना इतना कठिन होता है, फिर भी उसे हम बिना किसी खर्च के अत्यंत सरलता से स्वच्छ कर सकते हैं। बस, इसके लिए हमें निं

पानी पर हिंदी स्लोगन (Hindi slogan on Water-1)

पानी पर हिंदी स्लोगन (१ ) पानी यूँ ही बरबाद हुआ, तो विश्व में होगी मारा-मारी। पानी की एक बूँद देखना, होगी सब-दौलत पर भारी। 

रक्षाबंधन Hindi article on Raksha Bandhan

रक्षाबंधन रक्षाबंधन प्रति वर्ष सावन (श्रावण) मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसी कारण इसे ‘श्रावणी’ भी कहा जाता है। पुराने ज़माने में रक्षाबंधन को विद्वानों का त्योहार माना जाता था। वे लोग इस दिन अपना पुराना जनेऊ उतारकर नया जनेऊ पहने लेते थे। यह कार्य गाँव के बाहर किसी नदी या तालाब आदि के किनारे किया जाता था। पंडित और पुरोहित मंत्र पढ़कर इसे पूरा कराते थे। इसे ‘उपाकर्म संस्कार’ भी कहते थे। देश के कुछ भागों में आज भी यह प्रथा प्रचलित है।  प्राचीनकाल में श्रावणी को गुरुकुलों में बहुत उत्साह से मनाया जाता था। शिक्षा पूरी कर लेने वाले विद्यार्थी इस दिन दीक्षा-संस्कार में भाग लेते थे। इस कार्यक्रम को समावर्तन समारोह या संस्कार कहते थे। इस कार्यक्रम में वे शिष्य भी भाग लेते थे, जिनकी शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई होती थी। रक्षाबंधन को राखी का त्योहार भी कहा जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों के हाथों में राखी बाँधती हैं। रक्षाबंधन से कई दिन पहले ही बाज़ारों में दुकानें रंग-बिरंगी राखियों से सज जाती हैं। बहनें अपने भाइयों की कलाई को सजाने के लिए एक-से-एक सुंदर राखियाँ खरीदती हैं।  रक्षाबं